Friday, December 17, 2010

असली मुद्दा दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का है --

संसद का शीतकालीन सत्र अपनी तेईस दिन की अवधि पूरी कर , व्यवाहरिक रूप में बिना कोई कामकाज किये समाप्त हो गया | मीडिया , राजनीतिक दुनिया , सरकार के पक्षधरों और यहाँ तक कि आलोचकों ने भी , इस बार , इस बात पर ज्यादा माथा नहीं पीटा कि संसद के नहीं चलने से कितना चूना जनता की जेब पर लगा क्योंकि राजा के पौने दो लाख करोड़ के सामने सौ दो सौ करोड़ की कोई बिसात नहीं है और इसका सियापा करने वालों पर लोग हँसेंगे ही , ये सभी जानते थे | हमारे देश के राजनीतिक और सामाजिक वातावरण की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि यहाँ विकास से लेकर भ्रष्टाचार तक के सभी मुद्दे पार्टियों और व्यक्तियों के राजनैतिक और व्यक्तिगत हितों और स्वार्थों के हिसाब से निपटाए जाते हैं और देश या समाज का समग्र हित राजनीतिक दलों और व्यक्तियों के हितों और स्वार्थों के सामने गौण हो जाता है | यहाँ आरोप लगाने पर अपने साफ़ और निष्कलंक होने का सबूत देने के बजाय प्रत्यारोपों धमकियों की शरण ली जाती है | रोग का रूप धर चुकी इस विडम्बना का फैलाव राष्ट्रीय राजनीति से लेकर नगर , कस्बों की सरकारी गैरसरकारी संस्थाओं और जनसंगठनों के छुटभैय्ये नेताओं तक हो गया है |


 

2जी स्पैक्ट्रम के दौरान भी यह देखने में आया , जब शुरुवात में केंद्र सरकार और विशेषकर कांग्रेस ने विपक्ष (एनडीए) के समय के मामलों को भी जांच के दायरे में लेने की धमकी दी | पर , उस समय तक भाजपा स्वयं और गैरभाजपाई विपक्ष इतने आगे बड़ चुका था और उन्हें जेपीसी गठन के राजनीतिक फायदे इतने स्पष्ट दिख रहे थे कि पीछे वापस लौटने का तो कोई सवाल ही नहीं था | कांग्रेस और विशेषकर प्रधानमंत्री , जो इसके पूर्व हर्षद मेहता कांड के समय जेपीसी का सामना कर चुके थे , इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे कि मामले की तह तक जाने का सवाल तो बाद में आएगा , उसके पहले सरकार और प्रधानमंत्री की पदेन दायित्व के निर्वाह में लापरवाही बरतने और गठबंधन की मजबूरी के नाम पर भ्रष्टाचार की तरफ से आँखें मूंदने के सवाल पे जो छीछालेदर होगी और भद्द पिटेगी , उसके राजनीतिक नुकसान को संभालना एक कठिन काम होगा | कांग्रेस इस बात को भी अच्छी तरह समझ रही थी कि आज गठित जेपीसी को पूरे मामले की जांच पड़ताल करते करते दो से ढाई वर्ष का समय कम से कम लगेगा और याने जांच रिपोर्ट अगले आमचुनाव के छै महने या एक साल पहले आयेगी , जिसका पूरा पूरा राजनीतिक लाभ विपक्ष उठाएगा और नुकसान कांग्रेस के खाते में जायेगा | वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने संसद को चलने देने के सवाल पर बुलाई गई सर्वदलीय बैठकों में , ऐसा ही चलते रहने पर संसद को भंग करने की अप्रत्यक्ष धमकियां भी दीं |


 

इस सबसे परे , इस प्रश्न पर ध्यान देने के लिये कोई तैयार नहीं दिखता कि देश के लिये सबसे ज्यादा नुकसानदायक क्या है ? भ्रष्टाचार या फिर संसद के नहीं चलने से अटकने वाले बिल और संसद पर जाया होने वाला रुपया ? निसंदेह सभी कहेंगे भ्रष्टाचार | प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह जिन आर्थिक सुधारों , आर्थिक प्रगति और जीडीपी में वृद्धि का हवाला देकर अपनी पीठ थपथपवाना चाहते हैं , उस प्रगति के लिये देशवासियों से ली गई कुरबानी की तुलना में लाभ देशवासियों के निचले तबके को नहीं के बराबर मिला है | केंद्र सरकार की हों या राज्य सरकारों की , गरीबों के लिये चलाई गईं योजनाएं , राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना से लेकर मितानिन तक , सभी भ्रष्टाचार के कोढ़ से ग्रसित हैं और गरीब तबके के हजारों करोड़ रुपये डकार कर नेता और अफसर मालामाल होकर बैठे हैं | ऐसे में यदि भ्रष्टाचार को पूरी ताकत और राजनीतिक ईमानदारी के साथ खत्म नहीं किया जाए तो सुधारों से जुड़े बिलों और योजनाओं का कोई फ़ायदा नहीं | कोई भी आर्थिक सुधार नीति और नियमों को भ्रष्टाचार से मुक्त रखे बिना पूरा नहीं हो सकता है | पर अफसोस की बात है कि जिस राजनैतिक ईमानदारी और इच्छाशक्ति की बात हम कर रहे हैं , स्वतन्त्र भारत में अपनाई गई व्यवस्था और एक के बाद एक आई सरकारों में उसका अभाव ही रहा है | यदि ऐसा नहीं होता तो देश के भ्रष्ट सम्पन्नों का करोड़ों खरब रुपया काले धन के रूप में विदेशों में जमा नहीं होता और भारत की गिनती सर्वाधिक भ्रष्ट देशों में न होती |


 

जहाँ तक आम लोगों की सोच का सवाल है , सर्वोच्च न्यायालय के यह कहने के बावजूद कि 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले की जांच वर्ष 2001 से और सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में ही कराई जायेगी , उनका अनुभव बताता है कि कुछ नहीं होगा | यह तूफ़ान (शीतकालीन सत्र) गुजरने के बाद राजनेता , मीडिया , कारोबारी , नौकरशाही किसी दूसरे काम में लग जायेंगे और 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला , भारत के अन्य बड़े घोटालों की तरह सूचीबद्ध होकर इतिहास में दफ़न हो जायेगा | यदि आम लोगों की इस सोच को बदलना है , तो राजनैतिक दलों के सामने , जेपीसी गठित होने या नहीं होने के निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर , यह सोचने का समय है कि राजनैतिक दलों , राजनेताओं , नौकरशाहों और कारोबारियों की जो भ्रष्ट छवि बनी है , उनकी साख में जो गिरावट आई है , क्या उसमें सुधार के लिये ही , लीपापोती छोड़कर , दोषी भ्रष्ट जनों को सजा देने की शुरुवात शीर्ष से करेगी ? असली मुद्दा दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का है , न कि जेपीसी के गठन का | आशा है , सरकार इस बात को समझेगी , तभी बजट सत्र सुचारू रूप से चल सकेगा |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

Friday, December 10, 2010

आज का ग्रेकस –


 

"घर और परिवार और इज्जत और शराफत और नेकी और जो कुछ भी अच्छा था और पवित्र था उसके मालिक गुलाम थे और वही उसकी रक्षा कर रहे थे – इसलिए नहीं कि वे अच्छे और पवित्र थे बल्कि इसलिए कि जो कुछ भी पवित्र था सब उसके मालिकों ने उन्ही गुलामों के हवाले कर दिया था |"

हावर्ड फ़ास्ट की महाकथा स्पार्टकस में उपरोक्त विश्लेषण रोम की सीनेट का एक सदस्य ग्रेकस करता है | "स्पार्टकस" में ईसा से 73 वर्ष पूर्व के रोम की कथा है जब गुलामी की प्रथा अपने चरम पर थी और उन्ही गुलामों में से एक "स्पार्टकस" ने उस पाशविक प्रथा को चुनौती देने का विवेक और साहस अपने आप में पाया था | ग्रेकस के उपरोक्त विश्लेषण का अर्थ कदापि यह नहीं लगाया जा सकता कि कि उसे विद्रोही गुलामों से कोई सुहानाभूति थी या फिर वह उस व्यवस्था को बदलना चाहता था | स्वयं ग्रेकस के अनुसार राजनीतिज्ञ चालबाज होता है और राजनीतिज्ञ के अंदर इस चीज (चालबाजी) को देखकर लोग अकसर इसको ईमानदारी समझने की भूल किया करते हैं | ग्रेकस की गणतंत्र के बारे में राय देखिये ;

"देखो हम लोग एक गणतंत्र में रहते हैं | इसका मतलब है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है और मुठ्ठी भर लोग ऐसे हैं जिनके पास बहुत कुछ है | और जिनके पास बहुत कुछ है उनकी रक्षा , उनका बचाव उन्हीं को करना है जिनके पास कुछ भी नहीं |"

ग्रेकस के अनुसार इस तरह के गणतंत्र को बनाए रखने के लिये सीमेंट का काम राजनीतिज्ञ ही करते हैं | उच्चवंश (सम्पतिवान) इस काम को नहीं कर सकते क्योंकि उनकी निगाह में जनता भेड़ बकरी के सामान होती है | उच्चवंशीय को साधारण नागरिक के बारे में कुछ नहीं मालूम | अगर यह सब उसके भरोसे छोड़ दिया जाए तो समूचा ढांचा एक दिन में भहरा पड़े | इसे बचाने का काम राजनीतिज्ञ करते हैं | कैसे करते हैं , ग्रेकस से सुनिए ;

" ............ जो चीज नितांत असंगत है हम उसके अंदर संगती पैदा करते हैं | हम लोगों को यह समझा देते हैं कि जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता अमीरों के लिये मरने में है | हम अमीरों को यह समझा देते हैं कि उन्हें अपनी दौलत का कुछ हिस्सा छोड़ देना चाहिए ताकि बाकी को वे अपने पास रख सकें | हम जादूगर हैं | हम भ्रम की चादर फैला देते हैं और वह ऐसा भ्रम होता है जिससे कोई बच नहीं सकता | हम लोगों से कहते हैं – तुम्हीं शक्ति हो | तुम्हारा वोट ही रोम की शक्ति और कीर्ति का स्त्रोत है | सारे संसार में केवल तुम्हीं स्वतन्त्र हो | तुम्हारी स्वतंत्रता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है , तुम्हारी सभ्यता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है , तुम्हारी सभ्यता से अधिक प्रशंसनीय कुछ भी नहीं है | और तुम्ही उसको नियंत्रित करते हो ; तुम्हीं शक्ति हो , तुम्ही सत्ता हो | और तब वे हमारे उम्मीदवार के लिये वोट दे देते हैं | वे हमारी हार पर आँसू बहाते हैं , हमारी जीत पर खुशी से हँसते हैं | ................चाहे उनकी हालत कितनी भी गिरी क्यों न हो , चाहे वे नालियों में ही क्यों न सोते हों , .............. चाहे वे अपने बच्चों के पैदा होते ही उनका गला क्यों न घोंट देते हों , चाहे उनकी बसर खैरात पर ही क्यों न होती हो और चाहे पैदाईश से लेकर मरने तक उन्होंने एक रोज काम करने के लिये हाथ न उठाया हो , .......... यह मेरी कला है | राजनीति को कभी तुच्छ नहीं समझना |"

उपरोक्त भूमिका लंबी होने के बावजूद भारत की आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर एकदम सटीक बैठती है | एक तरफ , बड़े कारोबारियों , राजनीतिज्ञों , अधिकारियों , लाबिस्टों के अपवित्र गठबंधन हैं , जो देश की संपदा और आय (जोकि वस्तुत:देश के मेहनतकशों की खून पसीने की गाढ़ी कमाई है ) को लूटने में लगे हैं | जिनके सामने इज्जत और शराफत की कीमत दो कौड़ी भी नहीं है , जो नेकी और पवित्रता को त्याग चुके हैं क्योंकि नेकी और पवित्रता उनकी लालच , उनकी विलासिता , उनके ऐश-आराम के रास्ते में रुकावट पैदा करती हैं , क्योंकि देश की अस्मिता से लगाव , देशप्रेम उनके राह में बाधक है , इसलिए वे उसे त्यागकर , उनकी सत्ता में देश का जितना भी हिस्सा आया है , उसे बेचकर अपने घर को भरने में लगे हैं ताकि उनके बाद भी उनकी आने वाली बीसीयों पीढ़ी विलासिता और ऐश की जिंदगी गुजार सकें | इन्होने गणतंत्र के तीनों खम्भों को अपने अपवित्र घेरे में ले रखा है | इन्होने गणतंत्र के चौथे खम्भे पत्रकारिता को भी अपने अपवित्र घेरे में लेकर दलाली में लगा दिया है | दूसरी तरफ , देश की आबादी के लगभग पचास प्रतिशत याने पचास करोड़ लोग हैं जो भीषण गरीबी का शिकार हैं | सत्तर प्रतिशत परिवार बीस रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा कर रहे हैं | दुनिया के कुपोषित बच्चों में से आधे भारत में हैं | देश की आबादी का लगभग तीस प्रतिशत हिस्सा झुग्गी झोपडियों में अमानवीय जीवन जीने को अभिशप्त है और इनका बड़ा हिस्सा फुटपाथों , रेलवे स्टेशनों , बस स्टेंडों , दुकानों के सामने के पटियों , मंदिरों , घाटों पर रातें गुजारता है | लोगों को रोजगार देने के बजाय खैरात पर रहने की आदत डाली जा रही है | इस अपवित्र गठजोड़ के कारनामों की वजह से भारत को सर्वाधिक भ्रस्ट देशों में से एक माना जाता है | भारत में भी एक ग्रेकस है जो स्थिति की भयानकता के लिये जिम्मेदार भी है और इन विसंगतियों को संगत बनाने की पूरी कोशिश में लगा है | आईये , यह पता लगाने के लिये कि वह ग्रेकस कौन है , कुछ उद्धरणों पर ध्यान दें ;

"आगामी दशक , व्यैक्तिक वाणिज्य संस्थानों और सामूहिक प्रयासों के सृजन का दशक होना चाहिये | दरबारी पूंजीवाद (Crony Capitalism) और लोकप्रियता की राजनीति हमें अधिक दूर नहीं ले जायेगी |" (19.11.2004)

"क्या हम दरबारी पूंजीवाद को बढ़ावा दे रहे हैं ? क्या यह आवश्यक है या फिर आधुनिक पूंजीवाद को भारत में विकसित करने के दौरान की यह एक संक्रमण अवस्था है ? क्या हम उपभोक्ता और छोटे व्यवसायियों को दरबारी पूंजीवाद से सुरक्षित रखने के लिये पर्याप्त कर रहे हैं ?...... ऐसा तो नहीं कि उनको ( घरेलु व्यापारिक संस्थानों ) सुरक्षा देने के नाम पर दरबारी पूंजीवाद को बढ़ावा दे रहे हैं ?" (1.5.2007

"मैं मानता हूँ कि जब भी हमें नियमों की आवश्यकता होती है , मैं समझता हूँ कि वो नियंत्रक प्रभावी होने चाहिये , और , किन्तु , दरबारी पूंजीवाद वह खतरा है जिसे चाहने से दूर नहीं किया जा सकता | वह एक खतरा है , जिसके खिलाफ हमें सुरक्षा करनी होगी |" (6.11.2010)

दरबारी पूंजीवाद याने पूंजीवाद की वह अवस्था जिसमें कारोबार में सफलता कारोबारियों , राजनीतिज्ञों और सरकारी अधिकारियों के घनिष्ठ (मित्र) संबंधों पर निर्भर होती है | यह सरकारी ग्रांट , सरकारी परमिटों के वितरण में पक्षपात , टेक्सों में विशेष छूट के रूप में होती है | अपने बदतरीन रूप में दरबारी पूंजीवाद भ्रष्टाचार को शिष्टाचार के रूप में विकसित कर लेता है , जहाँ राजनीतिज्ञ और सरकारी अधिकारी घूस लेना सम्मान समझते हैं तो कारोबारी टेक्स में चोरी अपना अधिकार | इस अवस्था को अर्थशास्त्र में कई बार प्लूटोक्रेसी (धनिकों का राज) या क्लेप्तोक्रेसी ( Kleptocracy - चोरों का राज) कहा जाता है | उपरोक्त उद्धरणों में कोई इसी दरबारी पूंजीवाद के खिलाफ बार बार सावधान कर रहा है | यह हमारे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह हैं जिनके कुछ भाषणों से उपरोक्त उद्धरण लिये गए हैं | यदि याद किया जाए तो ऐसी ही बातें उन्होंने तब भी की थीं , जब वो नरसिम्हाराव के मंत्रीमंडल में वित्तमंत्री थे |

नवउदारवादी अर्थशास्त्री दरबारी पूंजीवाद को लायसेंस–परमिट राज के साथ जोड़ कर दिखाते हैं | यदि आप प्रधानमंत्री के 1 मई 2007 के भाषण पर गौर करें तो पायेंगे कि वो दरबारी पूंजीवाद को एक संक्रमण की स्थिति तो बता रहे हैं , साथ ही उसे आधुनिक पूंजीवाद के निर्माण के लिये आवश्यक भी बता रहे हैं | जहाँ तक मेरी याददाश्त जाती है , ऐसा ही उन्होंने 1994 में भी पंजाब नॅशनल बैंक के एक समारोह में भाषण देते हुए भी कहा था | समय ने सिद्ध कर दिया है कि कि यह भ्रष्ट आचरण कभी भी संक्रमण काल का नहीं हो सकता , बल्कि यह विशुद्ध रूप से उन नीतियों का प्रतिफलन है ,जो स्वयं प्रधानमंत्री ने वित्तमंत्री रहते हुए 1991 में शुरू की थीं | यह सच है कि आज दरबारी पूंजीवाद के स्वरूप में परिवर्तन आया है | तीन दशक पहले घूस देकर आउट आफ़ टर्न लायसेंस – परमिट हासिल कराने वाले दरबारी पूंजीवाद का अर्थ अब हो गया है स्पेशल इकानामिक जोन के अंतर्गत लाखों एकड़ जमीन हथियाना , एनरान जैसे सफ़ेद हाथी को प्रश्रय देना , वेदान्त , जिंदल , मोनेट , नेनो , जैसे बड़े घरानों को , किसानों से छीनकर हजारों एकड़ जमीन देना और उन्हें अनाधिकृत रूप से जंगलों को काटने देना और जंगल जमीन पर कब्जा जमाने देना | 2 जी स्पैक्ट्रम , कामन वेल्थ , आदर्श सोसाईटी , होम लोन और अब यू. पी. में अनाज घोटाले का पर्दाफ़ाश दरबारी पूंजीवाद का ही नतीजा हैं , जिसमें अरबों रुपये की घूस खाई गई होगी |

यक्ष प्रश्न यह है कि क्या मनमोहनसिंह प्रधानमंत्री के रूप में इस घूसखोरी और भ्रष्टाचार को रोकने के लिये कोई कदम उठा सकते हैं ? 2 जी स्पैक्ट्रम के मामले में कुछ दिन पूर्व दिया गया उनका बयान कि कैग को घोटाले और प्रक्रिया संबंधी गलती में अंतर करना आना चाहिये , जे पी सी बनाने से उनका इनकार , निराश करने वाला ही है | उनके द्वारा दरबारी पूंजीवाद का भय दिखाना या उसके खतरे के प्रति चेतावनी देना मात्र एक असंगत को संगत बनाकर लोगों के गले उडेलने की कोशिश ही है | वे , यदि इन परिस्थितियों से यदि खुद को पज़ल (परेशान) दिखाते हैं तो यह पाखंड लोगों को गुमराह करने के लिये किया जा रहा है | वे क्या सोचते हैं ? आज जिस असमानता , असंतुलन , अराजकता , भ्रष्टाचार , घूसखोरी , लूट , शोषण , अव्यवस्था को भारत के लोग झेल रहे हैं , उन्हीं की नीतियों का परिणाम हैं | यदि वे दरबारी पूंजीवाद से सचमुच में पज़ल हैं और परिस्थितियों में सुधार देखना चाहते हैं तो उनके पास वर्तमान समय एक अच्छे अवसर के रूप में उपस्थित है | वे उजागर करें कि देश के संसाधनों की यह भयावह लूट कैसे हुई है ? वे इस लूटी हुई राशी को देश के खजाने में वापस लाएं और उस रकम को स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधाओं तथा खाद्य सुरक्षा पर खर्च करें , जिसकी जनता को बहुत जरुरत है | यही एक रास्ता है , जिससे वे दिखा सकते हैं कि वे ग्रेकसनुमा राजनीतिज्ञ नहीं हैं |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"


 



 

Wednesday, November 17, 2010

क्या मनमोहनसिंह एक ईमानदार राजनीतिज्ञ हैं ?


 

सर्वोच्च न्यायलय की टिप्पणी ने मुझे एक बहुत पुरानी , लगभग सत्रह , अठारह वर्ष पुरानी घटना की याद दिला दी | बात उस समय की है , जब नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार में मनमोहनसिंह वित्तमंत्री थे | उस समय ऐसा कहा जा रहा था कि भारत अपनी देनदारियों को भी चुकाने की स्थिति में नहीं है और दिवालिया होने की कगार पर है | कहा जा रहा था , का प्रयोग मैंने इसलिए किया कि , न तो उस समय और न ही आज मैं भारत सरकार और उसके अर्थशास्त्रियों से सहमत हूँ कि भारत का ट्रेड बेलेंस दिवालिया होने की कगार पर था | यदि उस समय भी , और आज के दौर में भी यह बात उतनी ही सच है , स्विस बैंकों की बात छोड़ दीजिये , केवल भारत के अंदर छिपे हुए काले धन को बाहर निकाला जाता तो भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया के किसी भी देश से बेहतर होती | बहरहाल , एक ऐसी व्यवस्था में , जैसी कि हमारे देश में है , काले धन को बाहर निकालने की बात सोचना उतना ही मूखर्तापूर्ण है , जितना मनमोहनसिंह से आज यह पूछना कि वो राजा के कारनामों पर दो वर्ष खामोश क्यों रहे या उन्होंने सुब्रमणियम स्वामी को राजा पर आपराधिक मुकदमा चलाने की अनुमति क्यों नहीं दी | खामोश रहने की कला मनमोहनसिंह ने नरसिम्हाराव से सीखी या मनमोहनसिंह ने नरसिम्हाराव को सिखाई थी , यह भी राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के लिये शोध का एक अच्छा विषय हो सकता है | तो , मैं आपको उस दौर की बात बता रहा था , जब मनमोहनसिंह नरसिम्हाराव मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री थे और जगत प्रसिद्द शेयर मार्केट का घोटाला हुआ था , जिसे हर्षद मेहता कांड के नाम से उस दौर के लोग आज भी याद करते हैं | आज सारा का सारा विपक्ष , यह जानते हुए कि भी संयुक्त संसदीय समिति की जांचों का क्या हश्र होता है , टेलीकाम में हुए घोटाले के लिये संसदीय कमेटी से जांच करवाए जाने की माँग को लेकर अड़ा हुआ है | उस जगत प्रसिद्द घोटाले की जांच के लिये भी एक जेपीसी बनी थी , जिसके सामने मनमोहनसिंह पेश हुए थे | जब उनसे पूछा गया कि शेयर मार्केट में इतना बड़ा घपला हो रहा था , तब आप क्या कर रहे थे , तो मनमोहनसिंह का जबाब था , "मैं सो रहा था" | जब उनसे कहा गया कि आप ऐसा जबाब कैसे दे सकते हैं , तो उन्होंने जबाब दिया कि "मैं मजाक कर रहा था"|

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि देश और देशवासियों के साथ यह मजाक पिछले दो दशकों से निरंतर जारी है | आप यदि अपनी याददाश्त पर जोर डालेंगे तो पायेंगे कि हर प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री विशेषकर सरकारी विभागों में उदारीकरण की नीतियों को लागू करते समय किये जा रहे भ्रष्टाचार की तरफ से आँखे मूंदे रहा याने सोते ही रहा | चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र
की इकाइयों को निजी क्षेत्रों को ओने पौने दामों में सौंपने का मामला हो , जिसमें मार्डन फुड से लेकर व्हीएसएनएल और बाल्को तक सभी आ जाते हैं या फिर टेलीकाम इंडस्ट्री में हुए घोटालों का मामला हो , क्या कांग्रेसनीत और क्या भाजपानीत सभी सरकारों का रवैय्या जबाबदेही से भागने वाला ही रहा है | वैश्वीकरण के इस दौर में किये जा रहे निजीकरण को यदि रिश्वतीकरण और भ्रष्टाचारीकरण कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी |

भारत में 1991 , याने उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही जबाबदेही का बहुत ही संकुचित अर्थ लिया जा रहा है | जबाबदेही सिर्फ भ्रष्टाचार या अनैतिकता में लिप्त नहीं होने तक ही सीमित नहीं होती | जनतंत्र में व्यक्ति या संस्थान अपनी सार्वजनिक जिम्मेवारी के पालन के लिये उठाये गए कदमों के नतीजों के लिये भी जबाबदेह होते हैं | लेकिन भारत में इस तरह की जबाबदेही सरकार , प्रशासन और देश के विभिन्न संस्थानों तथा संस्थाओं से तो लुप्त हो ही चुकी है , विडम्बना यह है कि यह जबाबदेही हमारे देश के राजनेताओं , नौकरशाहों और संपन्न तबके के पास से भी गधे के सर से सींग की तरह गायब हो गयी है | जब चीजें गलत हो जाती हैं तो उसे व्यवस्था का दोष बताया जाता है और आजकल तो एक और नया फलसफा आ गया है , "गठबंधन" की मजबूरी | मानो व्यवस्था ईश्वर निर्मित हो और इसके लिये किसी इंसान को दोष देना पाप होगा या फिर गठबंधन बनाये रखना ऐसा ईश्वरीय आदेश है , जिसके लिये बेईमानी , भ्रष्टाचार और अनैतिकता को अनदेखा करना पुण्य का काम है |

एक बार पुनः 1992 में हुए उपर उल्लेखित वित्तीय घोटाले का स्मरण कीजिये | जब इस घोटाले का भेद खुला और उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे तब तात्कालीन वित्तमंत्री ने संसद में यह व्यक्तव्य दिया था कि , "अगर शेयर बाजार में एक दिन उछाल आ जाए और दूसरे दिन गिरावट हो तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं अपनी नींद हराम कर लूँ |" ( उद्धरण :प्रतिभूति एवं बैंक कारोबार में अनियमितताओं की जांच के लिये गठित संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट , खंड 1 , पेज 211 , लोकसभा सचिवालय , दिसंबर 1993 )| यह बताने की तो कोई जरुरत नहीं है कि 1992 में वित्तमंत्री कौन था | स्वतन्त्र भारत में मनमोहनसिंह पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो देश की जनता , संसद या फिर खुद के मंत्रीमंडल के सदस्यों का विश्वास हासिल किये बिना छै वर्ष का कार्यकाल पूरा कर चुके हैं | सार्वजनिक जीवन में उनकी छवि एक साफ़ सुथरे और ईमानदार व्यक्ति की है | प्रसिद्द पत्रकार खुशवंत सिंह ने अपनी किताब "
Absolute Khushwant : The low down on life , Death and most things in-between " में मनमोहनसिंह को जवाहरलाल नेहरू से भी बेहतर प्रधानमंत्री बताया है | शायद इसकी वजह वे दो लाख रुपये हों जो मनमोहनसिंह ने उनके जीवन के एकमात्र चुनाव लड़ने के लिये , लिये थे और फिर उपयोग नहीं होने पर वापस कर दिए थे | बहरहाल , खुशवंतसिंह के साथ कोई पंगा लिये बिना इतना तो कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण सादगी के साथ मनमोहनसिंह के अंदर किसी भी कीमत पर सत्ता के साथ नजदीकी बनाए रखने की चतुराई भी हमेशा मौजूद रही | क्या कभी यह भुलाया जा सकता है कि मनमोहनसिंह 1991 में आर्थिक सुधारों को लागु करने से पहले भी वित्त सचिव , रिजर्व बैंक के गवर्नर या भारत सरकार के वित्त सलाहकार के रूप में भारत में उन्हीं नेहरूवियन नीतियों को आगे बढ़ाने में लगे थे , जिनके बारे में उन्होंने पहला बजट पेश करते हुए संसद में कहा था कि "लम्हों ने खता की थी ,सदियों ने सजा पायी" | पर , भारत सरकार के विभिन्न पदों पर रहते हुए मनमोहनसिंह ने कभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को उदार बनाने या लाईसेंस , परमिट राज खत्म करने की वकालत नहीं की |

मनमोहनसिंह के नरसिम्हाराव मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री रहते हुए और उनके प्रधानमंत्रित्व के प्रथम कार्यकाल के दौरान घटी दो घटनाएं भी सत्ता और राजनीतिक शुचिता के प्रति उनकी सोच को प्रगट करती हैं | नरसिम्हाराव की सरकार अल्पमतीय सरकार थी , जो बाद में जोड़ तोड़ कर बहुमतीय सरकार बनी | मनमोहनसिंह के प्रधानमंत्रित्व में भी जब न्यूक्लीयर समझौते के विरोध में वामपंथी दलों ने अपना समर्थन वापस ले लिया तो सरकार जोड़ तोड़ करके ही बचाई गयी | इससे पता चलता है कि सत्ता में बने रहने के लिये कुछ भी करने से उन्हें भी कोई परहेज नहीं है और इसा मायने में वे अन्य किसी राजनीतिज्ञ से बिलकुल अलग नहीं हैं और उनका स्वयं का कोई कनविक्शन नहीं है | वे नरसिम्हाराव के विश्वस्त थे , पर , जैसे ही सत्ता का केंद्र सोनिया गांधी बनीं , उन्होंने अपनी निष्ठा अविलम्ब बिना हिचक बदल कर सोनिया गांधी के प्रति कर ली | वे सौम्य हैं , पर अपने लिये चतुर भी हैं | सर्वोच्च न्यायालय कुछ भी पूछे , उन्होंने तो अपनी सफाई कैग को धौंसा कर दे दी , " जानबूझकर की गई गडबडी और भूलवश हुई गलती के बीच कैग को फर्क करना चाहिये , साथ ही आधिकारिक फैसलों के पीछे के संदर्भ और परिस्थितियों को समझना चाहिये | कैग पर भारी जिम्मेदारी है , इसलिए उसे ध्यान रखना चाहिये कि उसकी रिपोर्ट सटीक , संतुलित और समुचित हो "| अब आप चिल्लाते रहिये कि यह सटीक , संतुलित और समुचित की शब्दावली तो देश को दो लाख करोड़ की चोट देने वाली है | पर , जिसे ओबामा ध्यान से सुनता है , वो क्यों आपको ध्यान से सुनेगा ? वैसे , मैं आपको एक बात बता दूं कि सौम्यता और योग्यता बहत अच्छे गुण हैं , पर वे तो अमूमन हर सेल्समेन में पाए जाते हैं , एक अरब लोगों के देश के प्रधानमंत्री में तो लोग इससे कुछ ज्यादा ही देखना चाहेंगे |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"


Sunday, November 14, 2010

बराक ओबामा जाना पहचाना चेहरा –


 

बराक ओबामा जब मुम्बई के रास्ते भारत आये तो मुझे उनका चेहरा बहुत जाना पहचाना लगा | ऐसा लगा वो इसके पहले भी भारत आ चुके हैं | जबकि ओबामा पहली बार भारत आये थे |

जबसे उनके भारत आने की बात पता चली थी , जेहन में उस व्यक्ति का चेहरा उभरता था , जो अश्वेत होने के बावजूद अमेरिका का प्रेसीडेंट चुना गया था | 47 वर्ष का एक व्यक्ति जो ईराक पर हमले से लेकर , हर उस गलती को ठीक करने की इच्छा रखे था , जो बुश और उसके पहले के जमाने में की गईं थीं | एक ऐसा व्यक्ति , जिसने अपने कार्यकाल के पहले साल में अमेरिका के चेहरे पर लगे बदनुमा दागों को धोने की कोशिशें की थीं और पूरी दुनिया को यह सन्देश देने की कोशिश की थी कि अमेरिका जैसे हठीले , गर्वीले और दुनिया को अपने इशारों पर नचाने की इच्छा रखने वाले राष्ट्र के अंदर भी अपनी गलतियों को सुधारने और उनसे सीख लेने का माद्दा है | एक ऐसा व्यक्ति , जो टर्की से लेकर त्रिनिदाद तक यह सन्देश दे रहा था कि वह अपने पूर्ववर्तियों से इस लिहाज से अलग है कि उसके अंदर राष्ट्र के प्रति गहन जिम्मेदारी के साथ साथ विश्व के नागरिक होने के दायित्व का बोध भी था |

पर , यह बराक हुसैन ओबामा , जो मुम्बई के रास्ते भारत आया और जिसने आते ही दस अरब डालर का माल भारत को बेचा , जिसने बच्चों के साथ मय पत्नी नृत्य किया , जिसने मुम्बई में आतंकीयों के शिकार लोगों को श्रद्धांजली दी और फिर सेंट जेवियर्स की क्षात्रा के सवाल के जबाब में न केवल भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू पर तोल दिया बल्कि पाकिस्तान में स्थायित्व भारत के नौजवानों के भी हित में है , यह भी कहा , वह ओबामा निश्चित रूप से नहीं था , जिसने दो वर्ष पहले अमरीका का राष्ट्रपति पद संभालते समय अमेरिका के बाहर भी करोड़ों लोगों के दिल में खुशनुमा ख्याल पैदा किये थे | दिल्ली पहुंचते ही ओबामा का असली चरित्र बाहर आ गया | दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष होने के गुमान को प्रदर्शित करने वाला चरित्र | दिल्ली के अंदर हैदराबाद हाऊस में हुई पत्रकार वार्ता के बाद ओबामा ने जिस तरह मनमोहनसिंह की पीठ थपथपाई , वह क्या प्रदर्शित करता है ? इस थपथपाहट से मनमोहनसिंह भले ही गदगद हो गए हों , लेकिन , भारत की अमेरिका परास्त लाबी को छोड़कर , शेष करोड़ों भारतीयों को यह थपथपाहट काटों से कम नहीं चुभी होगी | यही वह क्षण था जब मुझे बराक हुसैन ओबामा का चेहरा पहचाना हुआ लगा | लगा यही तो बुश है | यही क्लिंटन , यही कार्टर ,यही आईजनहावर है | हमारे देश की यह राष्ट्रीय विडम्बना है कि देश में राष्ट्रीय शर्म नहीं है | यदि है भी तो उसे राष्ट्रीय नहीं कह सकते , क्योंकि वह केवल आम  देशवासियों के पास है ,राजनेताओं के पास नहीं |

 अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"  

Friday, November 5, 2010

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं ---

ब्लॉग जगत के समस्त पाठकों , ब्लॉगर बंधुओं , समस्त नाते-रिश्तेदारों , मित्रों , प्रियजनों को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं | 
अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"


























































Sunday, October 24, 2010

सी ज़ेड.आई.ई.ऐ. सम्मलेन और जनवाद – सम्मलेन अवैध है --


 

भोपाल में आज से सीजेडआईईऐ का त्रिवार्षिक सम्मलेन प्रारम्भ होने जा रहा है | मुझे तुरंत जबलपुर निकालना है , इसलिए सीधे सीधे बात को रख रहा हूँ | इसका विश्लेषण कभी बाद में समय आने पर करूँगा | इस सम्मेलन तक के लिये मैं तकनीकी सहित सभी नार्म्स के हिसाब से सम्मलेन का एक्स आफिसियो प्रतिनिधी हूँ , ठीक वैसे ही जैसे इस अपेक्स बाडी के अन्य वर्किंग कमेटी मेंबर हैं और मुझे न केवल सम्मलेन में शामिल होने का नोटिस मिलना चाहिये था बल्कि परंपरा के अनुसार रायपुर डिवीजन की मंडलीय इकाई को मेरा इंतजाम भी करना चाहिये था | लेकिन न तो मुझे नोटिस मिला और नहीं मूल संगठन ने उसके किसी साथी के साथ हो रही सांगठनिक प्रक्रिया के उल्लंघन के प्रति कोई ध्यान दिया और वे देते भी कैसे ? बासिज्म , फासिज्म और चमचागिरी की संस्कृति पर चलने वाले व्यक्ति से यह उम्मीद करना कि वह किसी अन्य साथी के जनवादी अधिकार के लिये संगठन को संघर्ष के लिय प्रेरित करेगा बुद्धिहीन से पहाड़ा सुनने की इच्छा रखने के सामान है | लेकिन नोटिस देने और सम्मलेन में प्रतिनिधि पहुंचे इसे इंश्योर करने की जिम्मेदारी तो संगठन के महासचिव की होती है , पर जनवाद के नाम पर फासिज्म और तानाशाही चलाने वालों से यह अपेक्षा तो और भी व्यर्थ है , जिसके लिये कोई उपमा भी नहीं दी जा सकती | मंडलीय इकाई के एक उच्च नेता को मैंने यह बताया , तो उसका सीधा कहना था कि कामरेड वे सीधा झूठ बोल देंगे कि उन्हें नोटिस दिया गया था पर वे स्वयं नही आये | उसके अनुसार सीजेडआईईऐ का क्रियाशील नेतृत्व के एग्रीकल्चर में खप नहीं पाया | एग्री याने सहमती और कल्चर याने संस्कृति |बहरहाल, ट्रेड यूनियन में जनवाद को दफनाने वाले जनवाद पर भाषण झाड़ेंगे , किसी भी संगठन का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है | कुल मिलाकर यह सम्मलेन अवैध है | जल्दी में हूँ और भी बातें है समय आने पर बताउंगा |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

Saturday, October 23, 2010

अर्थ शास्त्र में नोबेल 2010 , बाजार की वास्तविकताओं से परे--


 

अर्थशास्त्र में दिया जाने वाला नोबेल , इस वर्ष " रोजगार के अवसरों की उपलब्धता के बावजूद बेरोजगारी कम नहीं होने के कारणों की पड़ताल " करने वाली थ्योरी पर अमरीका के पीटर डायमंड और डेल मोर्टेन्सन तथा ब्रिटेन के क्रिस्टोफ़र पिसारिदेस को दिया गया है | मैसच्यूसेट्स इन्स्टीट्यूट आफ़ टेकनालाजी में प्रोफ़ेसर पीटर डायमंड ने " खोज संघर्ष के सिद्धांत के साथ बाजार का विश्लेषण " करते हुए सिद्धांत दिया कि " किसी भी बाजार में विक्रेता और खरीददार को एक दूसरे को ढूँढने में कठिनाई होती है , क्योंकि इसमें बहुत समय और संसाधनों की जरुरत होती है |" नार्थवेस्ट यूनिवर्सिटी के डेल मोर्टेन्सन तथा लंदन स्कूल आफ़ इकानामिक्स तथा पालिटिक्स साईंस के क्रिस्टोफ़र पिसारिदेस ने इस सिद्धांत को श्रम बाजार पर लागू करते हुए निष्कर्ष दिया कि बहुत से बाजारों में नौकरी देने वाले ( नियोक्ता ) जिन्हें कर्मचारियों की तलाश है और ऐसे लोग ( बेरोजगार ) जिन्हें नौकरी की तलाश है , एक दूसरे के संपर्क में नहीं आ पाते क्योंकि तलाश की इस प्रक्रिया में समय और संसाधन दोनों की जरुरत होती है , जिसके कारण बाजार में " संघर्ष की स्थिति ( खोज संघर्ष ) " पैदा होती है | इसके फलस्वरूप , कुछ खरीददारों ( नियोक्ताओं ) की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं तो कुछ विक्रेता ( बेरोजगार ) भी अपना उत्पाद ( श्रम ) नहीं बेच पाते हैं | यही वजह है कि श्रम बाजार में रिक्तियां होने के बावजूद लोग बेरोजगार रह जाते हैं |

उनका विश्लेषण , श्रम बाजार में खड़े करोड़ों लोगों की बेरोजगारी को इतने सहज और सरल ढंग से उचित ठहराते हुए रुक नहीं जाता , बल्कि एक कदम आगे बढ़कर वे कहते हैं कि बेरोजगारी भत्ता देने से बेरोजगारी बढ़ती है क्योंकि फिर नौकरी तलाशने में लोग ज्यादा वक्त लेते हैं |
यह विश्लेषण , चाहे वे शास्त्रीय हों या नवशास्त्रीय , दोनों ही तरह के अर्थशास्त्रियों के पूर्व विश्लेषणों से अलग नहीं है , जिसके अनुसार लोग इसलिए बेरोजगार हैं क्योंकि या तो वे नियोक्ताओं के द्वारा न्यूनतम वेतन पर अपेक्षित उत्पादन क्षमता को पूरी करने में असमर्थ हैं या फिर लोग अपनी उत्पादन क्षमता की तुलना में अधिक वेतन की माँग कर रहे हैं | दोनों परिस्थितियों में निष्कर्ष एक ही है कि लोग बेरोजगार हैं क्योंकि उन्होंने ने बेरोजगार रहना पसंद किया है | इसलिए यह बेरोजगारी स्वैच्छिक है | उपरोक्त तीनों महानुभावों ने इसी थ्योरी को कुछ ज्यादा अच्छे सभ्य ढंग से प्रस्तुत किया है कि नियोक्ताओं और बेरोजगारों का मेल समय और संसाधनों की उपलब्धता की कमी की वजह से नहीं हो पाता है |

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि " ढूँढते ही रह गए " कि इस थ्योरी को नोबेल मिलने के दस दिनों के भीतर ही ब्रिटेन के वित्तमंत्री जार्ज आसबार्न ने सरकारी खर्चों में कटौती के प्रस्ताव संसद में पेश करते हुए लगभग पांच लाख नौकरियाँ अगले चार वर्ष में खत्म करने की घोषणा की है | यह केवल ब्रिटेन के साथ ही नहीं है | वैश्विक आर्थिक संकट के वर्तमान दौर में प्रत्येक देश में सरकारों तथा निजी नियोक्ताओं ने करोड़ों की संख्या में रोजगारशुदा लोगों का रोजगार छीनकर उनको पहले से बेरोजगार खड़े लोगों की फ़ौज में धकेला है | दरअसल , श्रम बाजार के अंदर रिक्तियों और बेरोजगारों , दोनों की एकसाथ मौजूदगी का यह एक बहुत ही सरलीकृत विश्लेषण है , जो "मुक्त बाजार" की अवधारणा के प्रबल समर्थक नवशास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के द्वारा दुनिया की विभिन्न देशों की सरकारों को मुंह छिपाने का अवसर प्रदान करने के
साथ ही नियोक्ताओं के द्वारा किये जा रहे श्रम के शोषण को ढकने का काम ही करेगा | अर्थशास्त्रियों के लिये , चाहे वे , शास्त्रीय हों या नवशास्त्रीय , विडम्बना यही है कि उनका मुक्त बाजार कभी भी उनके सिद्धातों पर नहीं चला बल्कि उन्हें हमेशा ही मुक्त बाजार की शैतानियों ( संकटों ) की तरफ से आँखें मूदनी पड़ी हैं या फिर पलटी मारकर अपने सिद्धातों को मुक्त बाजार के अनुसार ढालना पड़ा है | पूंजीवाद का इतिहास इस बात का गवाह है कि बाजार ने किसी भी दौर में अर्थशास्त्र के किन्ही भी नियमों का पालन नहीं किया है | बाजार को संचालित करने वाला एक ही नियम ( कारक ) है , और वह है , मुनाफ़ा और अधिक तेजी से अधिक मुनाफ़ा , चाहे उसके लिये बाजार को स्वयं को संकट में क्यों न डालना पड़े | मुक्त बाजार के इस व्यवहार पर इन अर्थशास्त्रियों का मुंह कभी नहीं खुलता और इनके बताए गए नुस्खे कभी भी बाजार को अनुशासित करने के लिये नहीं होते , बल्कि ये नुस्खे आमजनों की जेब से पैसा खींचकर बाजार की बेलगाम ताकतों के पास पहुंचाने का काम ही करते हैं | जैसा , हमने हाल के संकट के दौरान देखा कि दुनिया के करीब करीब सभी मुल्कों की सरकारों ने अपने अपने देश के भीमकाय वित्तीय और औद्योगिक निगमों को सार्वजनिक कोष से खरबों रुपयों के पैकेज दिए और जनता के ऊपर कर थोपे , जीवनोपयोगी वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि की और गरीब वर्ग के लिये चल रहे कल्याणकारी कार्यों के खर्चों में कटौतियां कीं |

वैश्विक आर्थिक संकट , जिससे पूरी दुनिया वर्ष 2008 से दो-चार हो रही है , बाजार की बेलगाम ताकतों की मुनाफे की हवस और उस मुनाफे को जल्दी से जल्दी बटोर लेने की लालच का ही परिणाम था , अब यह पुष्ट हो चुका है | अब समय आ गया है कि इन व इस तरह के सभी अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों की विकासपरक उपादेयता पर चर्चा की जाए | इन अर्थशास्त्रियों के द्वारा दिए गए सिद्धांतों में से किसी ने भी मुक्त बाजार की मुख्य समस्या "आर्थिक मंदी" या "दबाव" को रोकने के लिये कोई भी असरदायक रास्ता कभी नहीं सुझाया | नवशास्त्रीय अर्थशास्त्रीयों की पूरी फ़ौज , जिनमें हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी शामिल हैं , वर्तमान संकट को रोकने का कोई उपाय तो सुझा ही नहीं पाई , बल्कि उन्हें आने वाले संकट का भान तक नहीं हुआ | उनकी पूरी की पूरी जमात शेयर बाजारों में आ रहे उछाल पर मुग्ध होकर , बाजार के गुणगान करती रही | आश्चर्यजनक तो यह है कि मुक्त बाजार के पैरोकार इन अर्थशास्त्रियों को अपनी अक्षमता या असफलता पर शर्म भी महसूस नहीं हुई , उलटे , सरकारों के द्वारा दिए गए बेलआउट को उन्होंने अपने सिद्धांतों की विजय बताया और आज भी वे इन पैकेजों को जारी रखने की वकालत कर रहे हैं |

बद से बदतर यह है कि कोई भी आज यह बताने की स्थिति में नहीं है कि विश्वव्यापी आर्थिक संकट के किस मुकाम पर दुनिया आज खड़ी है | संकट के गुजर जाने या खत्म हो जाने के कयासों के बीच , हमें कुछ अर्थशास्त्रियों से , जिन्होंने वर्तमान संकट के लिये भी चेताया था , हमें अगले संकट की भविष्य वाणी भी मिल रही है | इस मध्य में "नियोक्ता और बेरोजगार , दोनों को एक दूसरे को तलाशने में कठिनाई है" का सिद्धांत उन अर्थशास्त्रियों को सुकून देने वाला है , जो मुक्त बाजार की अनुशासनहीनता के खिलाफ किसी भी तरह के कड़े फैसले से बचना चाहते हैं | नोबेल पुरूस्कार देने वाली समीती सहित मुक्त बाजार के हिमायतियों का कहना है कि यह सिद्धांत बेरोजगारी की स्थिति पर सरकार की आर्थिक नीतियों से पड़ने वाले प्रभाव को समझाने में मददगार होगा | प्रश्न यह है कि क्या वर्त्तमान में सरकारों के पास इस प्रभाव को जानने का कोई तरीका नहीं है क्या ? जबाब यही है कि एक नहीं ढेरों तरीके हैं , पर उनका नतीजा तब सामने आएगा , जब सरकारें बाजार को नियंत्रित करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति रखेंगी | जब आर्थिक सिद्धांत ही बाजार में हस्तक्षेप नहीं करने का है तो "ढूंढते रह गए" का सिद्धांत तो सरकारों के मुंह छिपाने के ही काम आएगा | यह उम्मीद करना बेकार ही है कि सरकारें बाजार में नियोक्ताओं और बेरोजगारों को मिलाने के कुछ नीतिगत कदम उठाएंगी |

तीनों नोबेल प्रतिष्ठितों के इस निष्कर्ष का , कि बेरोजगारी भत्ता देने से बेरोजगारी बढ़ती है , बहुत से देशों में स्वागत हो सकता है जहाँ बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है या जहाँ इसकी माँग की जाती है | वैसे इस निष्कर्ष का निहितार्थ यही है कि ऐसे लोग जिनकी आय का कोई साधन नहीं है , कोई सा भी काम कितनी भी अल्प मजदूरी पर करने के लिये तैयार हों | भूखा मरे , क्या न करे | तीनों नोबेल सम्मानितों ने ठीक वही सुझाया है , मुक्त बाजार जो माँग रहा है |

Saturday, October 2, 2010

देश में अमन-चैन बनाए रखने की कीमत मत मांगो-


 

देश के अमन-चैन में सेंध लगाने वाले अमन-चैन बनाए रखने की कीमत के रूप में देश के संविधान , धर्मनिरपेक्ष चरित्र , न्याय प्रणाली और क़ानून व्यवस्था की कुर्बानी माँग रहे हैं | दुर्भाग्य से अयोध्या में विवादित स्थल के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला इस कीमत को चुकाता नजर आता है | हमारे देश के उच्चतम न्यायालय और अयोध्या मामले में 21 वर्ष पूर्व बनाई गई जस्टिस के सी अग्रवाल , जस्टिस यू सी श्रीवास्तव और जस्टिस सैय्यद हैदर अब्बास की खंड पीठ को यह अंदेशा पहले से ही था कि न्यायायिक प्रक्रिया का निष्पक्ष पालन इस मामले में मुश्किल होगा | शायद इसीलिए जब 21 वर्ष पूर्व इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैजाबाद की जिला अदालत से रामजन्म भूमी बनाम बाबरी मस्जिद मुकदमा अपने पास बुलाया तो उपरोक्त तीनों जस्टिसों ने यथास्थिति बनाए रखने के आदेश के अंत में टिप्पणी की थी कि "इसमें संदेह है कि मुकदमे में शामिल सवालों को न्यायिक प्रक्रिया से हल किया जा सकता है |" इतना ही नहीं 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर राय देने से मना कर दिया था कि क्या वहाँ पहले स्थित कोई हिंदू मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी ? इसका अर्थ हुआ कि हमारे देश की न्याय प्रणाली को उस समय लगा कि न्यायिक प्रक्रिया में तर्कों के ऊपर भावनाओं और आस्था के हावी होने की पूर्ण संभावनाएं इस मामले में मौजूद हैं और एक निष्पक्ष फैसला देने में रुकावट पड़ सकती है | दुर्भाग्य से जस्टिस धर्मवीर शर्मा , जस्टिस सुधीर अग्रवाल , जस्टिस एस यू खान का फैसला न केवल इसकी पुष्टि करता है बल्कि अनेक सवाल भी खड़े करता है |

  1. हमारे देश में धर्मस्थल क़ानून है जो 15 अगस्त 1947 की स्थिति को मान्यता देता है | भारत के बहुरंगी धार्मिक एवं सांस्कृतिक समाज में विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों की टकराहट सर्वज्ञात है | मंदिर टूटे , मस्जिद टूटे , गिरजा और मठ भी टूटे हैं | लेकिन , इस टकराहट ने गंगा-जमुनी संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता वाले समाज को भी जन्म दिया है , उसे आगे बढ़ाया है | इसीलिये अतीत के सारे धार्मिक सांस्कृतिक विवादों को विराम देते हुए विवेकपूर्ण फैसला किया गया था कि 1947 में जो जहाँ है , वैसा ही माना जाए | वर्त्तमान फैसले में लखनऊ खंडपीठ के इस कथन को कि किसी हिदू मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद खड़ी की गई थी , यदि सही भी मान लें , तब भी उक्त क़ानून के मद्देनजर न्यायालय का फैसला न्यायोचित नहीं है तथा उपरोक्त क़ानून को कमजोर बनाता है | इस फैसले से अतीत में जो धर्मस्थल तोड़े गए हैं , और जो ऐतिहासिक रूप से सत्य है , उनका विवाद बड़े पैमाने पर उभरने की संभावना बनती है | विहिप के तोगड़िया और अन्य कुछ संतों के बयान इसकी पुष्टि भी करते हैं |
  2. राम मिथकीय पुरुष हैं , न कि ऐतिहासिक | मिथकों का अपना इतिहास होता है लेकिन इतिहास मिथक नहीं होता | अतः कोई भी कोर्ट राम की पैदाइश स्थल का सर्टिफिकेट नहीं दे सकता | न ही किसी पक्ष ने राम के जन्म का प्रमाण पत्र ही कोर्ट के सामने रखा है | अतः विवेक और क़ानून से संचालित कोई भी कोर्ट यह नहीं कह सकता कि राम वहीं पैदा हुए थे , जहाँ बाबरी मस्जिद का केन्द्रीय गुम्बद था और जहाँ दिसंबर 1949 की एक रात को राम की मूर्ति चोरी छिपे रखी गई थी | यही कारण है कि संघ और उसके विहिप , भाजपा सहित सभी अनुषांग बार बार यही कहते रहे कि राम के जन्मस्थल का सवाल आस्था का सवाल है और कोई कोर्ट इसका फैसला नहीं कर सकता | भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र , संविधान , न्याय और क़ानून व्यवस्था के दुर्भाग्य से कोर्ट के फैसले पर तर्क और विवेक की जगह आस्था हावी हो गई | इसीलिये , यह फैसला किसी भी स्तर पर विवाद समाप्त करने में सहायक नहीं हो सकता | कोर्ट के सामने विवाद भूमी के स्वामित्व निर्धारण का था , न कि इसका कि राम कहाँ पैदा हुए थे ? वैसे भी पैदाइश स्थल का स्वामित्व से सीधा संबंध नहीं होता |
  3. कोर्ट को 1949 में दायर शिकायत का फैसला करना था | यह फैसला 1949 की स्थिति पर ही हो सकता था , ना कि 2010 की स्थिति पर , जैसा कि कोर्ट ने किया है | इस फैसले में सबसे ज्यादा आपत्तिजनक बात यह है कि ये हिंसा , अराजकता और साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली आक्रांता ताकतों के राजनीतिक उपद्रव फैलाने के बाहुबल को कानूनी मान्यता देता है | सच यही है कि पूरे विवाद के दौरान "यथास्थिति" बनाए रखने के अदालती आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए साम्प्रदायिक राजनीतिक ताकतों ने "यथास्थिति" को हमेशा ध्वस्त किया लेकिन कोर्ट ने उसके आदेशों की अवेहलना करने वालों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की |
  4. कोर्ट को विवादित भूमी के स्वामित्व का फैसला करना था | लेकिन , कोर्ट ने मान्यता के आधार पर भूमी का बटवारा कर दिया | मालिकाना हक के मामले में मान्यता की दलील को मानकर , उस आधार पर फैसला देना क़ानून और निष्पक्षता के सभी सिद्धांतों के खिलाफ है |
  5. कोर्ट के फैसले से ऐसा लगता है कि कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट को अहं महत्त्व दिया है | पर , यह जगजाहिर है कि जिस दौरान याने 5 मार्च 2003 से 5 अगस्त 2003 के मध्य एएसआई ने विवादग्रस्त स्थल की खुदाई की , केंद्र में भाजपानीत गठबंधन की सरकार थी , जिसने इस संस्था के साम्प्रदायिकीकरण में कोई कसर नहीं छोड़ी थी | देश के जाने माने इतिहासकारों ने 28 अप्रैल 2003 को कोर्ट के सामने पेश की गई एएसआई की पहली रिपोर्ट पर ही अपनी आपत्तियां जता दी थीं |
    हाल ही में फैसले के परिप्रेक्ष्य में देश के जाने माने 61 नामचीन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों ने बयान जारी कर कहा है कि फैसले में कई ऐसे साक्ष्यों का जिक्र नहीं है जो फैसले के विरोध में पेश किये गए थे | फैसले में शामिल तीन जजों में से दो ने कहा है कि बाबरी मस्जिद एक हिंदू ढाँचे के गिराने के बाद बनाई गई | लेकिन , इन इतिहासकारों का कहना है कि इस मत के विरोध में एएसआई ने जो साक्ष्य प्रस्तुत किये , उन्हें दरकिनार किया गया है | खुदाई में मिलीं जानवरों की हड्डियां और इमारत तैयार करने में इस्तेमाल होने वाली सुर्खी और चूना से मुसलमानों की उपस्थिति साबित होती है और ये भी साबित होता है कि वहाँ मस्जिद से पहले मंदिर था ही नहीं , जैसे सभी तथ्यों को कोर्ट ने इग्नोर कर दिया है | इन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों के अनुसार एएसआई की उस विवादित रिपोर्ट को फैसले का आधार बनाया गया है जिसमें खुदाई में खम्बे मिलने का उल्लेख है , जबकि खम्बे कभी मिले ही नहीं थे |
  6. यदि एकबारगी मान भी लिया जाए कि बाबरी मस्जिद के निर्माण में उपयोग की गई सामग्री में किसी हिंदू ढाँचे के अवशेष हैं भी तो इसमें अजूबा क्या है ? हमारे देश में अनेक इमारतें हैं , जिनमें मुस्लिम , इंग्लिश , फ्रेंच , हिंदू स्थापत्य कला का उपयोग किया गया है | मात्र क्या इस कारण से बाबरी मस्जिद गैर इस्लामिक हो जायेगी | कोर्ट ने एक सैकड़ों साल से जीवित खड़ी ऐतिहासिक इमारत को तरजीह न देकर , 1992 के बाबरी मस्जिद को ढहाने के आपराधिक कृत्य को ही मान्यता देने जैसा काम किया है , जो आने वाली पीढ़ियों के सामने कल्पनातीत मुश्किलें खड़ा करेगा |

देशवासियों ने जिस परिपक्वता , सौहाद्र और भाई-चारे को अभी निभाया है , उसमें न तो मंदिर समर्थकों की कोई भूमिका है और न ही मस्जिद समर्थकों की , और न ही सरकार के स्तर पर किये गए सुरक्षा प्रबंधों की कोई भूमिका है | यदि कोई बात महत्त्व रखती है तो वह यह है कि 1992 के बाद देशवासियों ने जिस साम्प्रदायिक तांडव को देखा है , उसने उन्हें साम्प्रदायिक मुद्दों की व्यर्थता का बोध अच्छी तरह करा दिया है और उन्होंने राजनीतिक रूप से साम्प्रदायिक ताकतों को हाशिए पर डालने के पूरे प्रयास किये हैं | उन्हें अच्छी तरह अहसास था कि हाई कोर्ट का निर्णय जो कुछ भी हो , कानूनी प्रक्रिया यहाँ समाप्त नहीं होती है | अब परिस्थिति यह है कि फैसला आने के तुरंत बाद जो प्रफुल्लित होकर जोरशोर से देशवासियों से मंदिर बनाने में सहयोग करने की मांग कर रहे थे , खुद सर्वोच्च न्यायालय जाने की तैयारी कर रहे हैं | निश्चित रूप से देश में अमन–चैन , साम्प्रदायिक सदभाव बहुत जरूरी है | पर , यह दिल में रंज या मलाल के साथ नहीं होना चाहिये | यह अमन-चैन , सदभाव , भाई-चारा , उसे देश के संविधान , धर्मनिरपेक्ष ढाँचे , क़ानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था से मिलना चाहिये | इनकी कीमत पर प्राप्त अमन चैन स्थायी नहीं होगा , सुकून नहीं देगा | एक बैचेन समाज आने वाली कई पीढ़ियों के लिये बैचेनी और तल्खी छोड़ जाता है , इतिहास का यही सबक है , जिसे सभी को याद रखने की जरुरत है |


अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

Tuesday, September 28, 2010

राजा नंद का संकट मगध का संकट नहीं -


 

कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के सीईओ माईक हूपर का बयान कि उन्हें भारत की इज्जत से कोई मतलब नहीं है , उनका काम तो खेलों को सही तरीके से आयोजित कराना है , भारत के शासक वर्ग के सम्मान और प्रतिष्ठा का ताबूत बन चुके कॉमनवेल्थ खेलों पर आखरी कील है | जितना सख्त हूपर का बयान है , उतनी ही लीचड़ और बेबस प्रतिक्रिया दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित ने दी कि हूपर साहब का बयान अनुचित और दुखद है | मैंने हूपर के उस बयान को कई बार पढ़ा , पर मुझे उसमें कुछ भी अनुचित या दुखद नहीं लगा | हूपर भारत में कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन की देख रेख करने आये हैं और उनकी पूरी जिम्मेदारी और जबाबदेही कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के प्रति है ,न कि भारत की प्रतिष्ठा बचाने की | यदि मनमोहन सिंह एंड कंपनी , शीला दीक्षित या कलमाड़ी एंड कंपनी की समझ यह रही कि ब्रिटेन की रानी के दूत उनकी (उनके भारत की) इज्जत रखेंगे तो इसे इनके दिमाग के दिवालियापन के अलावा और क्या कहा जायेगा ? मनमोहनसिंह , जो अब खेलों के आयोजन से सीधे जुड़ चुके हैं , को अभी तक यह तो समझ में आ गया होगा कि जी-20 , डबल्यूटीओ में बुश , ओबामा से अर्थशास्त्री होने का तमगा लेकर पीठ थपथपवाना अलग बात है और देश के अंदर भ्रष्टाचार रहित , पारदर्शी , जनोभिमुखी प्रशासन देना अलग बात है |

वैसे , वे सभी लोग जो भारत के शासक वर्ग की हरकतों में , भारत सरकार के कामों में और भारत के राजनीतिक नेताओं के हास्यास्पद क्रियाकलापों में से हास्य रस निकाल कर खुश रहने का मंत्र ढूँढ चुके हैं , पिछले लगभग दो माह से सुखी होंगे | मैं स्वयं भी उन्हीं सुखी इंसानों में से एक हूँ | दरअसल , कॉमनवेल्थ के खेलों के संकट हमारा संकट है ही नहीं और इन खेलों के साथ देश की प्रतिष्ठा या राष्ट्रप्रेम जैसी किसी भावना को जोड़ना कोरी भावुकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | चाणक्य जब राजा नंद के शासन को उखाड़ने की चेष्टा में लगा था , नंद का महामंत्री अमात्य राक्षस ने चाणक्य को उन संकटों के बारे में बताया जिनसे नंद का राज घिरा हुआ था | पूरी बात सुनने के बाद चाणक्य ने अमात्य से कहा कि राजा नंद के संकट मगध ( मगध की प्रजा ) के संकट नहीं हैं | चाणक्य की उपरोक्त उक्ति भारत सरकार और भारत के शासक वर्ग के ऊपर पूरी तरह फिट बैठती है |

आज भारत के शासक वर्ग के सामने मौजूद संकट , देशवासियों के समक्ष मौजूद संकटों से एकदम जुदा हैं और कोढ़ में खाज की तरह शासक वर्ग राष्ट्रभक्ति , राष्ट्रीय सम्मान के नारों की आड़ में देशवासियों को तो अपने संकटों को बौझ उठाने कह रहा है लेकिन खुद देशवासियों के समक्ष मौजूद संकटों का संज्ञान भी नहीं लेना चाहता | कॉमनवेल्थ खेलों के सफल आयोजन से अगर देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि में कोई इजाफा हुआ भी तो वह देशवासियों के लिये शेयर मार्केट में हुए इजाफे के समान ही होगा , जिसका आम लोगों के संकटों से कोई भी वास्ता नहीं होता | जो सरकार घोषित रूप से इन खेलों पर 40 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रही है , जिसमें से हजारों करोड़ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है और न जाने कितना चढ़ेगा , उसी सरकार के मुखिया को हम कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट को गरियाते देख चुके हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो अनाज सड़ रहा है , उसे गरीबों को बांटने के लिये कहा था | इन खेलों की सफल मेज़बानी करके अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि में रौनक लाने के सपने देखने वाली सरकार को क्या कभी यह अपमान जनक लगता है कि उसके देश की एक अरब की आबादी में से आधी याने करीब पचास करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं याने उन्हें रोज भर पेट भोजन भी नहीं मिलता | भोजन याने क्या ? हलवा , पूड़ी , माल , मिठाई या फल , फूल नहीं सिर्फ दाल रोटी और जिस दिन तेल घी में बघरी सब्जी हो गई तो उनकी दिवाली हो जाती है | रोज मंहगाई कम करने के लिये रिजर्व बैंक के जरिये बाजार में तरलता ( पैसे का प्रसार ) कम करने के उपाय करने वाली सरकार ने पचास हजार करोड़ रुपये खर्च करने के पहले एक दफे भी नहीं सोचा कि आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है | उनकी आमदनी का ज्यादातर हिस्सा खाने पीने की चीजों में खर्च हो जाता है | उनकी जेब में दवाई दारु के लिये भी पैसा नहीं बचाता है | यहाँ तक कि जरूरी भोजन याने दाल और सब्जियां उनकी पहुँच से दूर हो गईं हैं | इसीलिये मैं कहता हूँ , शासक वर्ग की चिंताएं अलग हैं और हमारी चिंताएं अलग | शासक वर्ग के संकट अलग हैं और हमारे संकट अलग | आपका संकट , हमारा मनोरंजन कर सकता है , हम उसे हमारा संकट नहीं बनाएंगे | आपका संकट राजा नंद का संकट है , वह मगध का संकट नहीं है |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

Sunday, September 26, 2010

जाना बचपन के मित्र और मार्गदर्शक का – एक श्रद्धांजली

मेरा बचपन का समय और युवावस्था तक पहुँचने की अवधि वह दौर था , जब एक मध्यमवर्गीय परिवार में कम से कम एक अखबार के साथ एक पारिवारिक साप्ताहिक पत्रिका के साथ बच्चों के लिये कम से कम एक पत्रिका अवश्य ली जाती थी | बचपन में करीब तेरह चौदह वर्ष तक की उम्र तक हर साल की गर्मी की छुट्टियाँ नाना नानी के साथ ही बिताया करते थे , जहाँ कल्याण के अनेकों अंक जिल्द बंद थे और सारी छुट्टियाँ कृष्ण , अर्जुन , कर्ण , और महाभारत की कहानियां पढते बीत जाया करती थीं | वैसे पत्रिकाओं के पढने की सही शुरुवात चंदामामा से हुई थी ,जो घर में नियमित आया करती थी | एक अंक के लिये एक माह का इंतजार कितना बेसब्र बना सिया करता था कि हाथ में पडते ही आधे घंटे के भीतर पूरी चंदामामा खत्म हो जाती थी और फिर उन्ही कहानियों को और पुराने अंकों को पढते रहना ही काम रह जाता था | उसके बाद आया पराग का युग , जिससे , मेरी जानकारी में बाल साहित्य में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का दौर शुरू हुआ |राजा –रानी , राक्षस , देवी –देवताओं और बेताल से आगे का युग | वैसे स्थानीय अखबार में उस समय के मृत्युंजय को भी पढने का बड़ा चाव रहता था | और फिर मेरे पन्द्रह बरस का होते होते "नंदन" शुरू हुआ , जिसमें मनोरंजन के अलावा शिक्षा के तत्व को भी डालने की शुरुवात हुई | उसी "नंदन" के जरिये पहली बार स्कूली शिक्षा के बाहर के किसी साहित्यकार को जाना | कन्हैय्यालाल नंदन उसमें बच्चों के नाम से एक चिठ्ठी लिखा करते थे | अक्सर वे चिठ्ठियां बहुत शिक्षाप्रद हुआ करतीं थीं | कहते हैं , कहते क्या हैं , में इसे मानता हूँ कि स्कूल की शिक्षा किसी को भी शायद असीमित योग्यता प्रदान कर सकती है , पर , जहाँ तक मानस पर अमिट प्रभाव छोडने की बात है , वह तो स्कूली और कालेजी शिक्षा से इतर जगहों से ही मिलती है | कन्हैय्यालाल नंदन ने अपने साहित्य जीवन में अनेकों बच्चों के लिये इस पुण्य काम को किया होगा , जिनमें से अनेक बच्चे इसे महसूस ही नहीं कर पाए होंगे | एक ऐसे साहित्यकार को मुझ जैसे अनाम और अकिंचन की भावभरी श्रद्धांजली |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

Saturday, September 18, 2010

आम जनता दंगा फसाद नहीं करती --


अयोध्या की विवादित भूमि पर 24 सितम्बर को आने वाले फैसले को टालने के लिये दी गई याचिका के खारिज होने के साथ यह पक्का हो गया है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ 24 सितम्बर को ही मामले में अपना फैसला सुना देगी | यदि इस बात को सत्य माना जाये कि प्रत्येक देश और समाज को काल चक्र अतीत में की गई गल्तियों को सुधारने का अवसर अवश्य प्रदान करता है तो भारतीय समाज और विशेषकर हमारे
देश के राजनेताओं , संतों और इमामों के समक्ष यह अवसर इसी 24 सितम्बर को उपस्थित होने जा रहा है , जब विवादित भूमि पर अदालत का फैसला आयेगा |


यह देखते हुए कि अयोध्या विवाद भारत के हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच तनाव का एक प्रमुख मुद्दा रहा है , और देश की राजनीति को इसने न केवल प्रभावित किया है
बल्कि हमारे देश के राजकीय पक्षों ने इसका बेजा राजनीतिक इस्तेमाल भी अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये किया है , एक चुनौती हमारे सामने मौजूद है कि पुनः ऐसा न हो पाये | अदालत के निर्णय के संबंध
में मुस्लिम पक्ष ने हमेशा कहा है कि वह अदालत का फैसला मानेगा , लेकिन विश्व हिन्दु परिषद का एक तबका यह कहता आया है कि यह उनकी धार्मिक आस्था का मामला है , जिसका फैसला अदालत नहीं कर सकती | भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिन्दू परिषद के एक तबके सहित कई हिंदू संगठनों की मांग रही है कि सरकार संसद में कानून बनाकर विवादित जमीन उसे एक विशाल राम मंदिर बनाने के लिये दे दे , लेकिन देश के बहुसंख्यक लोगों के इससे सहमत नहीं होने के चलते भाजपा को भी सत्ता में आने के लिये इस मुद्दे को छोड़ना पड़ा था | यद्यपि आरएसएस प्रमुख मोहन राव भागवत कानून के दायरे में ही प्रतिक्रिया व्यक्त करने और शांति बनाये रखने का आश्वासन दे रहे हैं लेकिन उसके सहयोगी विश्व हिन्दू परिषद के तेवर कड़े हो रहे हैं | माहौल फिर से तनाव पूर्ण है | कानून व्यवस्था बिगड़ने की आशंका जताई जा रही है | आम देशवासी सहमे हुए हैं | यह सब तब है जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के फैसले के बाद सभी पक्षों के लिये आगे और कानूनी कार्यवाही करने के रास्ते खुले हुए हैं |


बहरहाल ,एक बात , अयोध्या मामले के चारों पक्षकारों सुन्नी वक्फ बोर्ड , निर्मोही अखाड़ा , राम जन्म भूमि न्यास ,गोपाल सिंह व्यास के साथ साथ आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों तथा भाजपा और कांग्रेस
के नेताओं को समझना पड़ेगी , कि , पिछ्ले तीन दशकों में घटी तीन बड़ी घटनाओं , सिख विरोधी दंगे , बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात का नरसंहार , ने भारतीय समाज के मानस को तोड़कर रख दिया है | राष्ट्रीय एकता , सर्व धर्म समभाव , हजार से ज्यादा वर्षों की साझा विरासत जैसे नारों से समाज के अन्दर पैदा हुए अलगाव को ढाका तो जा सकता है लेकिन जरा सी हलचल से उस अलगाव के घाव फिर हरे हो जाते हैं | उपरोक्त घटनाओं में केवल निरीह देशवासी ही नहीं मारे गये थे , बल्कि अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले भारतीय दर्शन की भी हत्या हुई थी | समाज की उस सामूहिक सोच को नकारा गया था , जो किसी भी समाज की समरसता और समग्र विकास के लिये अत्यंत आवश्यक होती है | प्रसिद्ध दार्शनिक रामचंद्र गांधी के शब्दों में बाबरी मस्जिद पर हमला मस्जिद पर नहीं बल्कि भारतीय सोच पर था | सत्ता प्राप्त करने की राजनीति में सामाजिक अलगाव फैलाने से प्राप्त होने वाले फायदे कितने तुच्छ और अल्पकालिक होते हैं , यह सभी देख चुके हैं | घ्रणा और द्वेश की जमीन पर राजनीतिक फसल हमेशा नहीं लहलहा सकती , इस सबक को हमेशा याद रखने की जरुरत है |


यह फैसला एक ऐसे समय आ रहा है , जब देश में संकटकालीन परिस्तिथि मौजूद है | एक तरफ कश्मीर का मामला है , जहाँ अलगाव वादी ताकतें पूर्ण उग्रता के साथ सक्रिय हैं तो दूसरी ओर कामन वेल्थ के खेल हैं , जिनकी तैय्यारियों पर अनेक प्रश्न खड़े हैं और आने वाले अतिथियों और खिलाड़ियों की सुरक्षा का बहुत बड़ा दायित्व केंद्र और दिल्ली की सरकार पर है | मामले की नजाकत को देखते हुए ही केंद्र सरकार ने सभी लोगों से शांति बनाये रखने की अपील की है | पर कांग्रेस को भी साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर अपने समझौता वादी रुख में सुधार करना होगा | कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस दोनो ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वायदा किया था कि सत्ता में आने पर वे श्रीक्रष्ण आयोग की रिपोर्ट
को लागू करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं | रिपोर्ट में जिन अफसरों और नेताओं की आलोचना हुई , उनमें से किसी को भी सजा नहीं हुई | यदि ऐसा हुआ होता तो आज जैसे अन्देशे वाली स्थिति का निर्माण नहीं हुआ होता |


हमारे देश के राजनेताओं के सोच का दायरा इतना संकीर्ण और सत्तालोलुप है कि वे समझ ही नहीं पाते कि सिख विरोधी दंगे , बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात नर संहार जैसी घटनाएं समाज के लोगों की मानसिकता पर कितना विपरीत प्रभाव डालती हैं | पिछले तीन दशकों में भारतीय समाज में जिस बढ़ी हुई असहनशीलता और क्रूरता को हम देख रहे हैं , उसमें पिछले तीन दशकों के दौरान अपनाई गईं आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरुप पैदा हुए असंतोष के अलावा उपरोक्त तीनो घटनाओं का भी बड़ा हाथ है | स्वयं जस्टिस श्रीकृष्ण ने हाल ही में दिये गये एक साक्षात्कार में यह पूछने पर कि कमीशन की बैठकों के दौरान जब लोग अपनी कहानियाँ बयान करते थे तो एक इंसान के नाते आप पर क्या प्रभाव पड़ा , बताया कि , इस कमीशन में काम करने से पहले मैं बहुत शांत व्यक्ति था | मुझे कभी गुस्सा नहीं आता था| कमीशन में लोगों की कहानियाँ सुनते सुनते मुझे बहुत गुस्सा आने लगा , मैं तेज मिजाज का हो गया | ये मेरे परिवार का कहना है | जस्टिस श्रीकृष्ण ने आगे कहा कि अगर आप सुनते रहें कि इसे जला दिया गया , उसे मार दिया गया , इससे मानसिक व्यथा होती है और इसके
अंतरंग परिणाम होते हैं |


जब एक जस्टिस जिसे रोज तनावपूर्ण परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है , उद्वेलित हो जाता है तो साधारण जनों के उपर पड़े प्रभाव का संकेंद्रित सामाजिक प्रभाव तथा उसके सामाजिक परिणाम कितने घातक होते होंगे , समझा जा सकता है | देश के राजनियकों को सोचना पड़ेगा कि वे किस तरह का भारतीय समाज चाहते हैं | आम जनता दंगा फसाद में नहीं पड़ती , उनको भड़काने वाले लोग होते हैं , जो उन्हें उद्वेलित करते हैं | जब व्यक्ति भड़क जाता है तो भटक भी जाता है | उम्मीद करें इस बार ऐसा न हो |


अरुण कान्त शुक्ला

Thursday, September 9, 2010

क्रिकेटर्स को भारत रत्न नहीं देना चाहिये --


जबसे सचिन तेन्दुलकर ने साउथ अफ्रिका में दोहरा शतक बनाया है , उन्हें भारत रत्न देने के लिये जबर्दस्त लाबिंग मीडिया की पहल परचल रही है | इस लाबिंग में कुछ खेल विशेषज्ञों , पुराने समकालीन क्रिकेटरों के साथ साथ राजनीतिज्ञों का जुड़ना आश्चर्य में डालने वाला रहा है | सचिन तेंडुलकर को भारत रत्न देने की सिफारिश महाराष्ट्र सरकार ने तो की ही , लोकसभा तथा राजसभा में भी सांसदों ने ऐसी मांग केंद्र सरकार से किये | सचिन स्वयं इस सम्बंध में अपनी लालसा को छुपा नहीं पाते हैं | भारतीय वायु सेना में ग्रुप कैप्टेन की मानद उपाधी ग्रहण करने के समारोह के समय यह लालसा पुनः उजागर हुई है | बहरहाल , सचिन ही क्यों , कोई भी स्वयं को योग्य समझने वाला व्यक्ति यदि ऐसी आकांक्षा या लालसा रखता है तो उसमें गलत कुछ भी नहीं है | पर , सचिन तेंडुलकर ही क्यों , आज की व्यवसायिक क्रिकेट से जुडे किसी भी व्यक्ति को क्या भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान देना चाहिये , यह जरुर गम्भीर और विचारणीय प्रश्न है ?
एक समय था , जब क्रिकेट को भद्र जनों का खेल कहा जाता था | पर यह भद्र जनों का खेल कब रहा , यह बताना बहुत मुश्किल है | हो सकता है , इसे भद्र जनों का खेल इसलिये कहा जाता रहा हो क्योंकि उस दौरान भद्र जनों के पास ही इतना समय रहता हो कि वे एक दिन विश्राम का मिलाकर छै दिनों का टेस्ट मेच खेल सकते हों | एक श्रंखला में न्यूनतम पांच मेच खेले जाते थे | दो टेस्ट मेच के बीच का अंतराल मिलाकर , पूरी श्रंखला के लिये दो माह से उपर का समय लगता था | इतना समय तो भद्र जन ही निकाल सकते थे | इसके अलावा इसमें कोई भद्रता कभी नहीं रही | यदि रही होती तो इंग्लेंड-आस्ट्रेलिया एशेज श्रंखला के दोरान बरसों पहले कुख्यात बाडी लाईन प्रकरण नहीं हुआ होता | हो सकता है कि हाकी - फुटबाल और अन्य खेलों के उपर अपनी सुप्रिमेसी , जो आज भी कायम है , बनाने के लिये भद्रजनों ने ही इसे भद्रजनों के खेल के नाम से प्रचारित किया हो | बहरहाल क्रिकेट आज भद्रजनों का नहीं भ्रस्टजनों का खेल है | इसमें भद्रता किंचित मात्र भी नहीं है , किंतु भ्रस्टता से यह लबालब भरा हुआ है | क्रिकेट खेलने वाले देशों में से कोई भी एक देश ऐसा नहीं है , जिसके खिलाड़ियों पर पैसा खाकर , ऐसा , खेलने के आरोप नहीं लगे हैं , जिससे खेल का परिणाम प्रभावित होता है | इंग्लेंड , आस्ट्रेलिया जैसे देश हैं , जहाँ क्रिकेट पर सट्टेबाजी के लिये बकायदा कंपनियां खुली हुई हैं और नामी गिरामी क्रिकेट खिलाड़ियों का उनसे व्यावसायिक रिश्ता है | जिस बात पर गौर किया जाना चाहिये वह यह है कि क्रिकेट में सट्टेबाजी कहीं भी क्यों न हो , भारत का नाम उसमें अवश्य जुड़ा रहता है | 1998 में आस्ट्रेलियन खिलाड़ी शेन वार्न और मार्क वाघ ने खुलासा किया था कि 1994 के टूर्नामेंट के दोरान उन्होनें एक इंडियन बुकी को जानकारियां उपलब्ध कराईं थीं | भारत , श्रीलंका , पाकिस्तान के खिलाड़ियों पर सट्टेबाजों से पैसा लेकर खेल को प्रभावित करने के आरोप नये नहीं हैं | यहाँ तक कि कपिल देव , जो 1983 में एक दिवसिय क्रिकेट का विश्वकप जीतकर लाये , उन पर भी मनोज प्रभाकर ने सट्टेबाजों से पैसा लेने का आरोप लगाया था |
भारत में क्रिकेट लोकप्रियता से उपर उठकर लगभग एक जुनून है | इसे जुनून बनाने में उस ईलाक्ट्रानिक मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है , जो आज बिना सोचे , विचारे किसी भी मुद्दे पर न केवल जनभावनाओं बल्कि सरकारों सहित देश की अन्य सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपने अनुसार चलाने की कोशिश में लगा रहता है | किंतु , फुटबाल सोसर के समान क्रिकेट पूरी दुनिया में नहीं खेला जाता है | भारत रत्न , कला , साहित्य , विज्ञान एवं टेकनालाजी तथा उच्च कोटी के लोक कार्यों के लिये देने का प्रावधान है | क्रिकेट भारत में उद्योग की सीमा से आगे बड़कर धंधे में परिवर्तित हो चुका है और क्रिकेट खिलाड़ी विज्ञापनों और फेशन परेडों से कमाई करने के अलावा करोडों रुपयों में खुद को बेच रहे हैं | इंडियन प्रीमियर लीग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है , जहाँ भारत के बड़े और नामी क्रिकेट खिलाड़ी , माने हुए विदेशी खिलाड़ियों के साथ , अपने मालिकों को खुश करने के लिये सरकस के शेर , भालू , बन्दर के समान करतब दिखा रहे हैं और असफल होने पर मालिकों से झिड़की भी खा रहे हैं | क्रिकेटर्स का कार्य किस श्रेणी में आयेगा ? जिन विज्ञापनों में किसी भी दौर के क्रिकेट खिलाड़ियों ने काम किया है , उनमें से ढेरों ऐसे हैं जो आम देशवासियों और विशेषकर बच्चों और युवाओं के लिये अत्यंत हानिकारक हैं | व्यावसायिक क्रिकेट , क्रिकेट में भ्रष्टाचार , सर्कस क्रिकेट , विज्ञापनों में काम , रेम्प पर केट वाक , क्रिकेटर्स के किस काम को और किस उपलब्धी को लोक कार्य की श्रेणी में रखा जायेगा ? इसलिये ,क्रिकेटर्स को भारत रत्न से जितना दूर रखा जाये , भारत रत्न के लिये उतना ही अच्छा होगा |

 

अरुण कांत शुक्ला

 

Saturday, August 14, 2010

सौदागर सरकारें और त्रस्त उपभोक्ता

किसी भी देश की राष्ट्रीय सरकार की जबाबदारी केवल अपने लिए अतिरिक्त आर्थिक ताकत पैदा करने के साथ पूरी नहीं हो जाती है |यह सच है कि आज के भूमंडलीकरण के दौर में विकसित देशों के सामने ठहरने के लिए उनके समान आर्थिक व्रद्धि हासिल करना जरूरी है , किन्तु उतना ही जरूरी देश के अंदर की आर्थिक गतिविधियों को समाज के निचले स्तर तक ले जाना भी है |
यदि देश की एक बड़ी जनसंख्या की भागीदारी आर्थिक तरक्की के अंदर नहीं होगी तो सरकारों के द्वारा बनाए गए नियम और नीतियां कालान्तर में देश के लिए बोझ ही साबित होते हैं |एक लक्षित और संतुलित विकास न केवल देशवासियों को विकास के पथ पर ले जा सकता है , बल्कि वैश्विक प्रतिद्वंदता में खड़े होने की शक्ति भी देता है |
भारत में मौजूदा अप्रत्यक्ष कर प्रणाली की जगह और उन्नत वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली को लागू करने की कवायद के पीछे भी यही भावना काम करना चाहिये थी , पर , देशवासियों के दुर्भाग्य से देश की मौजूदा सरकार और उसके वित्तमंत्री जीएसटी के जिस ढाँचे को सामने लेकर आये हैं , वह विश्वव्यापार संगठन और विकसित देशों को जितना भी खुश कर दे , भारत के आम उपभोक्ताओं के लिए तो कहर बरपाने वाला ही है |


भारत से पहले 140 देश जीएसटी को अपने देश में लागू कर चुके हैं और उनमें से भी अधिकाँश ने इसे भूमंडलीकरण के दौर में याने पिछले तीन दशकों में ही इसे अपनाया है |उनके अनुभव हमारे सामने थे और भारत सरकार चाहती तो उन देशों में हुई और हो रही परेशानियों से सबक लेकर और भी बेहतर जीएसटी प्रस्ताव लेकर आ सकती थी |
आस्ट्रेलिया में जीएसटी लागू करने की कवायद 1985 में शुरू हुई थी , तब जाकर यह 1 जुलाई 2000 से लागू हो पाया था | इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह 10 प्रतिशत की दर से लागू हुआ था और आज भी 10 प्रतिशत ही है | बुनियादी खाद्यान्न , ताजा भोजन , लायब्रेरी बुक्स , स्कूल टेक्स्ट बुक्स को जीएसटी से छूट है |इसके बावजूद आस्ट्रेलिया में इसे एक प्रतिगामी टेक्स माना जाता है , जिसका विपरीत प्रभाव अल्प या कम आय समूह पर ज्यादा पड़ा है |आस्ट्रेलिया में जीएसटी लागू होने के बाद से मांग में कमी आई है |
न्यूजीलेंड में जीएसटी 10प्रतिशत की दर से 1986 में लागू हुआ था | 1989 में इसे बढ़ाकर 12.5 प्रतिशत किया गया और अब अक्टोबर 2010 में इसे बढ़ाकर 15 प्रतिशत करने की योजना है | न्यूजीलेंड में जीएसटी की दरों में वृद्धि का भारी विरोध हुआ है |
कनाडा उन दो देशों में से एक है जहां भारत में प्रस्तावित जीएसटी के समान दोहरी दरें हैं | कनाडा में जीएसटी की दर अभी तक केवल 5 प्रतिशत ही है


यदि जीएसटी की दरों को विश्व के पैमाने पर देखा जाए तो इसका औसत प्रतिशत 15.5 आता है
इस लिहाज से देखा जाए तो वित्तमंत्री के प्रस्ताव न केवल अभी बहुत अधिक है , बल्कि तीन साल बाद जब वे कह रहें कि सभी वस्तुओं और सेवाओं पर एक ही दर 16 प्रतिशत लागू होगी , तब भी यह भूमंडलीय औसत से ज्यादा ही होगी | यहाँ यह याद रखना भी उचित होगा कि 13वें वित्त आयोग ने सरकार से सिफारिश की थी कि जीएसटी की कुल दर 12 प्रतिशत ही रखी जाए , 5 प्रतिशत सेन्ट्रल जीएसटी के लिए और 7 प्रतिशत स्टेट जीएसटी के लिए पर सरकारें भी अजीबोगरीब होती हैं , जब कोई कमेटी मूल्यों या करों में वृद्धि की सिफारिश करती है तो उसे तुरंत लागू करने के लिये सरकार पीछे पड़ जाती है , लेकिन यदि सिफारिश टेक्स कम करने या मूल्य कम करने की है , तो उसे रद्दी की टोकरी में डालने में सरकार को कोई समय नहीं लगता |इसीलिये 13वें वित्त आयोग की सिफारिशों को नकारने में सरकार को कोई समय नहीं लगा |
जहाँ तक सेवा कर का प्रश्न है , वर्त्तमान में यह 10 प्रतिशत है और शिक्षण तथा स्वास्थ्य सेवाओं को इससे छूट प्राप्त है |परन्तु , जीएसटी में इसे बढ़ाकर 16 प्रतिशत करने के साथ साथ शिक्षण और स्वास्थ्य सेवाओं को भी इसके दायरे में ले लिया गया है | इसका नतीजा यह होगा कि छोटी निजी शिक्षण संस्थाओं , छोटे अस्पतालों द्वारा दी जा रही सेवाएं महंगी होकर आम लोगों के लिए फजीहत का कारण बनेंगी |इतना ही नहीं सेवा कर के दायरे में और अधिक सेवाओं को शामिल करने से आम लोगों को अचानक छोटे से छोटे कार्य के लिए भी सेवाओं के महंगे होने के चलते , उनका उपभोग त्यागना पड़ेगा , जिसके चलते सेवा क्षेत्र में रोजगार में लगे लोगों और स्वरोजगारियों को मंदी और बेरोजगारी को झेलना पड़ेगा |


जीएसटी में उन्हीं 99 वस्तुओं को कर मुक्त रखने का प्रस्ताव है , जिन्हें वेट कर व्यवस्था में कर मुक्त रखने की सिफारिश तात्कालिक इम्पावर्ड कमेटी ने की थी | लेकिन , अनुभव बताता है कि राज्यों में वेट व्यवस्था लागू होने पर उपरोक्त सूची व्यावाहारिक रूप से अपर्याप्त निकली और राज्यों ने उस सूची से इतर अनेक वस्तुओं को कर मुक्त किया था |प्रायः सभी राज्यों में लघु और घरेलु उद्योग के बतौर मसालों , बड़ी , पापड़ , अचार , दौना-पत्तल , जैसी अनेक वस्तुओं का उत्पादन होता है , जो उस सूची से बाहर हैं |
इसके अतिरिक्त प्रत्येक राज्य में स्थानीय शिल्प कला से सम्बंधित अन्य अनेक वस्तुओं का निर्माण होता है ,जो स्थानीय अपेक्षाकृत निर्धन किन्तु कुशल कारीगरों के द्वारा बनाई जाती हैं | उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में लकड़ी की कलाकृतियां , तो चांपा-जांजगीर क्षेत्र में कोसा के कपड़ों का काम बहुतायत से होता है |
ये कार्य  राज्य की हस्तशिल्प की सदियों पुरानी परम्परा के वाहक ही नहीं हैं , बल्कि राज्य की संस्कृति की पहचान भी हैं |जीएसटी की नयी व्यवस्था में यदि ये सब 16 प्रतिशत कर के दायरे में आये तो न केवल इन शिल्पों के समाप्त होने का भय है , बल्कि इनसे जुड़े सैकड़ों कारीगरों के बेरोजगार होकर बर्बाद होने का खतरा भी है | गरीबी , आय उपार्जन के साधन नहीं होने के कारण , कर्ज के चलते आत्महत्याओं के मामले अब गाँव और किसानों तक सीमित न होकर शहरों में भी होने लगे हैं |कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि ये बढ़कर हमारे पारंपरिक कार्य करने वाले कारीगरों तक पहुँच जायें |


इसी तरह दैनिक आवश्यकता की अनेक वस्तुओं के 12 प्रतिशत कर की सीमा में आने की संभावना है |सॉल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसियेशन आफ इंडिया , जो खाद्य तेल उद्योग का संगठन है , ने वित्तमंत्री और राज्य वित्तमंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति के चेयरमेन असीम दास गुप्ता को ज्ञापन देकर कहा है कि खाद्य तेल जैसी वस्तुओं पर 12 प्रतिशत कर लगाने का व्यापक प्रभाव कीमतों पर पड़ेगा
ज्ञातव्य है कि खाद्य तेलों पर अभी उत्पाद शुल्क लगता ही नहीं है और वेट 4-5 प्रतिशत से अधिक कहीं नहीं है , बल्कि केरल जैसे अनेक राज्य हैं , जहां वेट भी शून्य है |
एसोसियेशन ने इसके सम्भावित परिणामों से भी आगाह किया है | एसोसिएशन के अनुसार , 12 प्रतिशत टेक्स लगाने पर , खाद्य तेलों की बिक्री पर टेक्स चोरी बढ़ने लगेगी | पिछले वर्षों में टेक्स कम होने के कारण टेक्स की चोरी में खासी कमी आयी है | इसके अलावा टेक्स बढ़ने पर खाद्य तेल महंगे हो जायेंगे और उपभोक्ताओं पर बोझ बढ़ जाएगा और इसका सबसे अधिक असर गरीबों पर ही होगा |
एसोसियेशन के अनुसार खाद्य तेल आवश्यक वस्तु के हिसाब से अत्याधिक संवेदनशील है |इससे महंगाई पर तुरंत असर दिखाई देगा और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक बढ़ने लगेगा |खाद्य तेलों में मिलावट की भी समस्या के बढ़ने की आशंका है
टेक्स चोरी और मिलावट की बात केवल खाद्य तेलों के साथ ही नहीं है बल्कि सभी वस्तुओं पर यह लागू होता है | देश के उद्योग जगत ने भी ऐसी ही आशंका जताते हुए कहा है कि जीएसटी को इस तरह डिजाइन करना चाहिये कि उससे समस्त आर्थिक गतिविधियों की कुशलता बढ़े तथा अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में बढोत्तरी हो |साथ ही साथ घरेलु उत्पादों और सेवाओं के मूल्यों में कमी आये और उपभोग में वृद्धि हो |


जीएसटी में यह प्रावधान भी है कि उन सभी लघु उद्योग की इकाइयों पर , जिनका टर्नओवर 1.5 करोड़ रुपये से अधिक होगा , केंद्रीय जीएसटी भी लागू होगा |इसका मतलब हुआ कि वे सभी इकाईयां जों अभी सेन्ट्रल एक्साईज से मुक्त है , वे भी केंद्रीय कर के दायरे में आ जायेंगी | इसका संभावित परिणाम यह होगा कि प्रतिस्पर्धा में नहीं ठहर पाने के कारण बहुत सी इकाईयाँ बंद होने की कगार पर आ जायेंगी , जिससे अनेक लोगों के बेरोजगार होने की भी संभावनाएं हैं | इसके अतिरिक्त आम जनता भी इनसे प्राप्त होने वाले अपेक्षाकृत सस्ते उत्पादों से वंचित हो जायेगी |




राज्यों के वित्तमंत्रियों की अधिकार प्राप्त कमेटी ने केंद्रीय वित्तमंत्री के द्वारा सुरक्षित किये गए वीटो पावर तथा जीएसटी विवाद प्राधिकरण में केंद्रीय प्रतिनिधियों की दखलंदाजी के अलावा उपरोक्त सारे सवालों पर भी आपत्तियां उठाईं थीं | निश्चित रूप से राज्यों को ही बुनियादी रूप से जनता के साथ सीधे संबंधों में रहना पड़ता है , बल्कि राज्य के लोगों की बेहतरी की भी सीधी जिम्मेदारी राज्य सरकारों की ही होती है | अभी महंगाई के सवाल पर लोकसभा तथा राज्यसभा में हुई बहस के दौरान हमने देखा कि केंद्रीय वित्तमंत्री ने जमाखोरी और कालाबाजारी नहीं रोक पाने ठीकरा राज्यों के सर पर फोड़ा था |  इसलिए ,  राज्यों से यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि जीएसटी के मामले में वे सोच समझकर कदम उठाएंगे |




जब केंद्रीय वित्तमंत्री कहते हैं कि जीएसटी लागू होने के बाद एक वर्ष के भीतर देश की अर्थव्यवस्था एक खरब से दो खरब की हो जायेगी , तो , इसका अर्थ होता है कि जनता को आने वाले समय में और अधिक वस्तुओं तथा सेवाओं पर बढ़ा हुआ कर देने के लिए तैयार हो जाना चाहिये | हाल के समाचारों के अनुसार केन्द्र जो नया फार्मूला लेकर आ रहा है , वह सभी राज्यों को स्वीकार्य होने की संभावना है | केन्द्र के द्वारा जीएसटी पर प्रस्तुत प्रारूप पर राज्य सरकारों को मुख्यतः उन प्रावधानों पर विरोध था , जो राज्य सरकारों के वित्तीय अधिकारों में कटौती करते थे या राज्य में जीएसटी पर होने वाले किसी विवाद में केंद्र के हस्तक्षेप को अवश्यंभावी ठहराते थे | समझा जाता है कि केंद्र सरकार अब मूल प्रस्ताव में संशोधन करने जा रही है जिससे जीएसटी परिषद में केंद्रीय वित्तमंत्री के वीटो पावर के साथ साथ राज्यों को भी वीटो पावर होगा | इसके परिणाम स्वरूप जीएसटी परिषद में तभी कोई निर्णय लिया जा सकेगा , जब केंद्र और सभी राज्य एकमत हों | इसी तरह से जीएसटी विवाद प्राधिकरण में केंद्र के प्रतिनिधी रहेंगे , पर वे राज्यों के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगे |
यदि 18 अगस्त को होने वाली बैठक में राज्य केन्द्र के साथ ऐसे किसी समझौते पर राजी हो जाते हैं और बाकी सभी मुद्दों को छोड़ देते हैं तो सौदागर सरकारों के बीच फंसा उपभोक्ता त्रस्त तो होगा ही |


                                                                                                            अरुण कान्त शुक्ला .....

Thursday, August 5, 2010

संसद में महंगाई पर बेमतलब और बेनतीजा बहस --

लोकसभा में महंगाई पर एक बेमतलब और बेनतीजा बहस आज वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी के जबाब के बाद अध्यक्ष मीरा कुमार के इस प्रस्ताव को पढ़ने के साथ पूरी हो गयी कि मुद्रास्फीति के अर्थव्यवस्था पर बढ़ते दबाव के कारण आम आदमी पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव को सरकार थामने की कोशिश करे | देश की सबसे बड़ी पंचायत में पक्ष -विपक्ष दोनों के सांसदों ने आम आदमी के नाम पर जी भरकर सियापा किया और मगरमच्छी आंसू बहाकर ये दिखाने की कोशिश की , कि , वो सब ,जो शायद , इसी सत्र में महंगाई के नाम पर , अपना वेतन भत्ता खुद बढ़ाकर लाखों रुपये करने वाले हैं ,  आम आदमी के लिए कितने चिंतित हैं ?  जो विपक्ष कल तक महंगाई के नाम से ही और ऐसे नियम के तहत ही बहस के लिए अड़ा हुआ था , जिसमें मतदान का प्रावधान हो , वह प्रणव मुखर्जी के चाय-समौसे खाकर 342 में बहस के लिए राजी हो गया | एक ऐसे नियम के तहत बहस , जिसका न कोई अर्थ और न कोई नतीजा ! याने , तुम्हारी भी जय जय , हमारी भी जय जय | पिछले पूरे सप्ताह लोकसभा में बना रहा गतिरोध अंतत: एक ऐसी रस्साकशी साबित  हुआ , जिसमें सरकार और विपक्ष दोनों अंत में जाकर एक हो गये , और हार गया , असली पीड़ित , आम देशवासी |
मैंने अपने पिछले एक लेख मानसून सत्र धुल न जाए हंगामें में कहा था कि देशवासियों के बहुत बड़े हिस्से की हार्दिक इच्छा है कि उनकी जिंदगी से सम्बंधित इस गंभीर समस्या पर लोकसभा के अंदर सरकार और विपक्ष दोनों गंभीरता पूर्वक बहस करें , जिससे कुछ ऐसे उपाय निकलें और नीतियां बने , जों आम आदमी को राहत पहुंचाएं | पर , लगभग 10 घंटों से ऊपर चली बहस में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और जनता के खाते में एक खाली-पीली बहस आई है , जिसमें सियापा तो बहुत हुआ , पर हल कुछ नहीं निकला  | इस अर्थ में , संसद और संसद में होने वाली बहसों का पूरा सम्मान करते हुए भी , नि:संकोच कहना पड़ता है कि यह जनता के साथ धोका है और महंगाई के नाम पर भारत बंद कराने वाले विपक्षी दलों ने बहस के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां ही सेंकने का काम किया है |  मुख्य विपक्षी पार्टी की लोकसभा में नेता सुषमा स्वराज , सीपीएम के नेता सीताराम येचुरी , सहित करीब-करीब सभी विपक्षी दलों के प्रमुखों ने नियम 342 के अंतर्गत बहस के लिए सरकार के राजी होने को अपनी उपलब्धी बताया है | इनसे पूछा जाना चाहिये कि यदि उन्हें बिना मत विभाजन की बहस पर राजी ही होना था तो चार दिनों तक लोकसभा को ठप्प रखने का औचित्य क्या था ?
जिस मुद्दे को लेकर भारत बंद किया गया था , उस पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों  कितने गंभीर हैं , इसकी बानगी भी बहस के दौरान देखने को मिली |  सांसदों की उपस्थिति से लेकर बहस  के स्तर तक किसी का भी निराश होना स्वाभाविक है | विपक्ष के पास कोई वैकल्पिक नीति नहीं थी तो वित्तमंत्री के जबाब में वही घिसे-पिटे तर्क थे | उन्होंनें राज्यों के ऊपर जमाखोरी और मुनाफाखोरी रोकने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करने का आरोप लगाया , वहीं एनडीए को उसके शासन काल में केरोसिन सहित अन्य वस्तुओं के बढाए गए दामों की याद दिलाई | एक समय ऐसा भी आया जब सदन में प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री , पेट्रोलियम मंत्री , गृह मंत्री कोई भी उपस्थित नहीं थे | जिन्हें राजनीति में प्रहसन और हास्य की दरकार रहती है , उनके लिए मुलायम सिंह तथा शरद यादव के भाषण थे | मुलायम सिंह को बड़ा अफ़सोस था कि सरकार को मालुम होने के बावजूद कि किन लोगों का काला धन स्विस बैंको के खातों में जमा पड़ा है , सरकार कुछ नहीं करती और मुलायम-लालू के पीछे सीबीआई लगाए रहती है | मुद्रास्फीति को विकास का स्वाभाविक परिणाम बताने वाला प्रणव मुखर्जी का पूरा जबाब यूपीए के दुबारा जीतकर  आने के दंभ को दिखा रहा था | बहरहाल , जिन्हें  इस चर्चा से कोई उम्मीद रही होगी , उनके हाथ निराशा के अलावा कुछ नहीं लगेगा |
एक बात जिस पर टिप्पणी आवश्यक है | बहस के दौरान चर्चा में हिस्सा लेने वाले करीब-करीब सभी सांसदों ने सरकार के ऊपर आम आदमी के प्रति संवेदनहीन होने का आरोप लगाया | बार-बार इसी बात को सुनकर प्रणव मुखर्जी तिलमिला गए और उन्होंने सांसदों के मार्फ़त पूरे देश को अपना बचपन बताना जरूरी समझा | उन्होंनें कहा कि " मैं गाँव से आया हूँ , मैंने दसवीं तक चिमनी में पढ़ाई की है , पैदल चलकर स्कूल गया हूँ , आज के हिसाब से यह दूरी प्रतिदिन 10 किलोमीटर रही होगी , मेरी संवेदनशीलता की हँसी मत उड़ाइए , यह कोई सामान्य वस्तु नहीं है |" इसका जबाब केवल यही है कि प्रणव दा 1950-51 के दौर में , जब आप दसवीं में पहुंचे होंगे , भारत के गाँवों की बात तो छोड़ दीजीये , तहसील और ब्लाक स्तर तक बिजली पूरी तरह नहीं पहुँची थी | आपके चिमनी में पढ़ने का कारण ,  मैं नहीं जानता , आर्थिक रहा या नहीं , पर मैंने स्वयं 1968 में केरोसीन लेम्प में बीएससी प्रथम वर्ष की पढ़ाई की है , क्योंकि , बिजली का जितना पैसा  मकान मालिक  मांगता था ,  उतना पैसा देने की हैसियत मेरे परिवार की नहीं रही | राजनीति तो आपको पारिवारिक विरासत में मिली है | परम आदरणीय आपके पिताश्री 1952-64 के मध्य पश्चिम बंगाल विधान परिषद के सदस्य रहे हैं | आज की बात कीजिये ,राहुल तो स्वयं कलावती लीलावती के घर होकर आये हैं |  क्यों , भारत में ऐसे गाँव हैं , जहां बिजली तो है , पर , वहाँ के निवासी कनेक्शन नहीं लेते , क्योंकि , आपकी बेची हुई दरों पर बिजली खरीदना उनकी हैसियत से बाहर की बात है | आज अधिकाँश राज्य सरकारें बीपीएल केटेगरी के लोगों को दो रुपया-तीन रुपया किलो की दर से चावल और गेहूँ बाँट रही हैं , क्यों ? केन्द्र की सरकार भी खाद्य सुरक्षा क़ानून लाने वाली है , क्यों ?  लाईये , बहुत अच्छा है | पर , यह उन नीतियों की हार है ,जिन पर दो दशक पहले मनमोहन सिंह ने इस देश को धकेला था | भारत के सत्तर करोड़ लोगों को अपनी कमाई पर स्वाभिमानी ढंग से जीने का अवसर दीजिए | आपने अपने जबाब में खुद स्वीकार किया है कि पिछले दो वर्ष में धन्नासेठों को दिये गए राहत पैकेजों ने मुद्रास्फीति बढाने में बहुत योगदान दिया है | यह तो उस समय भी आपसे कहा जा रहा था कि वे इन राहत पैकेजों का इस्तेमाल रोजगार देने में , उत्पादकता बढाने में नहीं करेंगे | इसके लिए एफिसियेंट मानिटरिंग की जरुरत होगी | अब ऐसा तो है नहीं कि ये आपको समझ में नहीं आया होगा | अवश्य आया होगा , इसी को क्रियान्वित करने के लिए आम आदमी की तरफ झुकी हुई संवेदनशीलता की जरुरत पडती है | जिसकी बात संसद में हो रही थी | इसका चिमनी में पढाई करने से कोई संबंध नहीं है | पैदा तो हम भी चिमनी के उजाले में ही हुए थे , इसे उदाहरण बनाकर क्या आज भी खराब होने दें | 

                                                                                                               अरुण कान्त शुक्ला

                          
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Thursday, July 29, 2010

वोटिंग से क्यों डर रही है सरकार -


वोटिंग से क्यों डर रही है सरकार

महंगाई के सवाल पर विपक्ष जहां नियम 168 या 183 के अंतर्गत चर्चा किये जाने की मांग को लेकर अड़ा है , वहीं सरकार किसी भी हालत में इसके लिये राजी होते नहीं दिखती | इसी गतिरोध पर हंगामे के चलते तीसरे रोज गुरुवार को भी लोकसभा तथा राजसभा स्थगित हो गईं | विपक्ष के हंगामे की वजह से लोकसभा या राजसभा के स्थगित होने पर हमेशा जनता का पैसा बर्बाद होने का ढिंढोरा पीटने वाला मीडिया भी इस बार पहले दिन थोड़ा शोरगुल करने के बाद चुप लगा गया |इतना ही नहीं, कल तक सीना फुलाकर मंहगाई को विकास का द्योतक बताने वाले प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री से लेकर सभी सरकारी नुमाईन्दों और सरकार के पक्ष में बोलने वाले बुद्धिजीवियों की जबान भी आज इस सवाल पर जबाब देते समय लड़खड़ा रही है | दरअसल , तमाम तर्कों से परे यह सचाई आम
देशवासियों के सामने खुलकर आ गई है कि वर्तमान महंगाई का कोई भी रिश्ता न सूखे से है और न ही खाद्यान्न की कमी से है , यह सिर्फ और सिर्फ मनमोहन सरकार की नीतियां हैं , जिनके फलस्वरुप आम देशवासियों को यह दिन देखना पड़ रहे हैं | बजट पेश करते समय ड्यूटी और टेक्स बढ़ाकर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में व्रद्धि के तीन महिनों के भीतर ही पुनः पेट्रो उत्पादों को छेड़ना यूपीए सरकार के लिये गले की हड्डी बन गया है , जो अब न उससे उगलते बन रही है और न निगलते |


इसके बावजूद कि भाजपा सहित विपक्ष के कमोबेश सभी दल पिछ्ले डेढ़ दशक में उन्ही नीतियों पर चले हैं , जिनसे महंगाई बढ़ने के साथ साथ आम देशवासियों के जीवन में त्रासदियां भी बढ़ी हैं , विपक्ष के लिये इस मुद्दे को छोड़ना , राज्यों में होने वाले आसन्न चुनावों को देखते हुए आत्मघाती होगा | आग में घी का काम प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री , कृषिमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के बयान कर रहे हैं कि दिसम्बर तक महंगाई काबू में आ जायेगी , क्योंकि अच्छे मानसून से उत्पादन में वृद्धि होगी | तो क्या , खाद्यान्नों के पिछ्ले तीन सालों में बढ़े हुए मूल्यों के लिये मानसून और सूखा ही जिम्मेदार हैं ? या , सरकार की लचर और आम लोगों के प्रति सम्वेदनाहीन नीतियों का इसमें ज्यादा हाथ है ?


इससे ज्यादा दुखदायी और क्या हो सकता है कि सरकार महंगाई को नियंत्रित करने में तब असफल हुई है , जब भारतीय खाद्य निगम याने एफसीआई के गोदामों में 3.40 करोड़ टन गेहूं और 2.6 करोड़ टन चावल का स्टाक है | गेहूं , दलहन और तिलहनों के रबी के उत्पादन से भी खाद्य वस्तुओं की महंगाई कम नहीं हुई | सच यह कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली नाम की जिस सप्लाई चेन को मनमोहनसिंह और फिर उनके बाद आने वाली सरकारों ने बर्बाद किया , आज के हालातों में वही सबसे अधिक उपयोगी होती | इस पूरे दरम्यान सरकार ने एक बार भी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि एफसीआई के पास पड़े विशाल खाद्यान्न भंडार का वितरण , कैसे बेहतर तरीके से किया जाये | बजाय उस अनाज को जरुरतमन्दों तक पहुंचाने के प्रबंध करने के , सरकार की प्राथमिकता , उस अनाज को सड़ते रहने देने की रही | एक और हास्यास्पद परिस्थिति का निर्माण , इस दौरान
महंगाई और पेट्रो उत्पादों के मूल्यों में बढ़ोत्तरी के बाद इन पर टेक्स कम करने के सवाल को लेकर हुआ है | केंद्र और राज्यों के मध्य पेट्रो उत्पादों , विशेषकर , पेट्रोल , डीजल , एलपीजी पर टेक्स कम करने तथा महंगाई पर नियंत्रण करने के सवालों को लेकर एक दूसरे के उपर दोषारोपण | केंद्र सरकार जहां राज्य सरकारों से बार बार पेट्रोल , डीजल सहित एलपीजी पर टेक्स कम करने को कह रही है तथा बर्बाद हो रहे अनाज के लिये राज्यों को दोषी ठहरा रही है , वहीं राज्य सरकारें केंद्र को स्वयं अत्याधिक टेक्स वसूली के लिये तथा गैरकांग्रेसी राज्यों में अनाज का कोटा कम करने के लिये दोषी ठहरा रहीं हैं | केंद्र तथा राज्य , दोनों सरकारें लालची , मुनाफाखोर सेठों की तरह व्यवहार कर रही हैं और आम देशवासी बेबसी और लाचारी से देख रहे हैं |


रोजमर्रा के जीवन में काम में आने वाली वस्तुओं के दामों में लगातार बढ़ोत्तरी का यह दौर हाल का नहीं है, बल्कि यह सिलसिला यूपीए शासन काल के पहले चक्र के अंतिम दो वर्षों से लगातार चला आ रहा है | वर्ष 2009 के आम चुनावों के समय विपक्ष और विशेषकर वाम मोर्चा महंगाई के सवाल को उतनी दमदार तरीके से नहीं उठा पाया क्योंकि कुछ समय पूर्व ही उसने नाभकीय समझौते का विरोध करते हुए यूपीए से समर्थन वापिस लिया था| वे जब महंगाई के सवाल को लेकर जनता के सामने पहुंचे तो आम आदमी ने इस पर , इस बिना पर विश्वास नहीं किया कि इन्होनें समर्थन तो नाभकीय करार के मुद्दे पर लिया था | सरकार ने खाद्य वस्तुओं की सप्लाई बढ़ाने के लिये अभी तक फौरी उपाय ही किये हैं | मसलन उसने दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिया | साथ ही यह घोषणा भी कर दी कि सरकारी एजेंसियों को दाल बेचने वालों को बोनस भी दिया जायेगा | जबकि यह जगजाहिर है कि किसान को खुले बाजार में ही दलहन की अच्छी कीमत मिल रही है | ऐसे में वह सरकार को दाल बेचेगा ही क्यों ? चीनी की कीमतों में भी इजाफा सरकार की नीतियों की वजह से ही हुआ | दूसरे जब दाम बढ़े तो सरकार मुनाफाखोरी और जमाखोरी पर लगाम नहीं लगा पाई |


मनमोहनसिंह एण्ड कंपनी दिलासा दे रही है कि आने वाले दिसम्बर तक खाद्य वस्तुओं की महंगाई 5 से 6 प्रतिशत तक सिमट जायेगी | जब सरकार के पास बाजार में वितरण और मूल्य नियंत्रण के पुख्ता तरीके ही नहीं हैं तो उसकी बात पर विश्वास कोई क्यों करे ? ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि सरकार का ध्यान फसल उत्पादन बढ़ाने से लेकर जल प्रबंधन और सिंचाई प्रबंधन , बीजों के विकास और बाजार में वितरण और मूल्य नियंत्रण तक , ऐसे
किन्हीं भी दीर्घकालीन उपायों पर है , जिनसे महंगाई पर वास्तविकता में अंकुश लग सकता है |

मनमोहनसिंह कुछ माह पूर्व ही कह चुके हैं कि उन्होने कि उन्होनें जानबूझकर महंगाई को रोकने के उपाय नहीं किये थे | समय आ गया है जब मनमोहनसिंह से पूछा ही जाना चाहिये कि क्या वो विकास दर को दोहरे अंक में देख्नने की खातिर देश के 70 करोड़ लोगों को महंगाई की आग में झोंक रहे हैं | यदि ऐसा है तो यह भयानक सौदा है | देशवासियों के सामने इसका पर्दाफाश होना ही चाहिये | ठीक इसी जगह आकर विपक्ष की महंगाई के मुद्दे पर चर्चा के बाद वोटिंग की मांग जिद्द नहीं बल्कि एक जायज मांग नजर आती है | यदि महंगाई पर नियंत्रण नहीं रख पाना सरकार की नीति है , तब भी , और यदि यह कार्यप्रलाणी सम्बंधित असफलता है तब भी सचाई जनता के सामने आना चाहिये ताकि जनता भी अपना रास्ता तय कर सके | वोटिंग होने से सभी राजनैतिक दलों की कलई भी जनता के सामने होगी | देशवासियों को कम से कम यह तो पता चलेगा कि कौन उनके पक्ष में है और कौन उनके विपक्ष में |


अरुण कांत शुक्ला

Sunday, July 25, 2010

मानसून सत्र न धुल जाए हंगामें में ----

                                           सोमवार , 26 , जुलाई , से , लोकतंत्र के सबसे बड़े मंच लोकसभा का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है | देशवासियों के बहुत बड़े हिस्से की हार्दिक इच्छा है कि उनकी जिंदगी से सम्बंधित समस्याओं पर लोकसभा के अंदर सरकार और विपक्ष दोनों गंभीरतापूर्वक बहस करें , जिससे कुछ ऐसे उपाय निकलें और नीतियां बनें , जो आम आदमी को राहत पहुंचाएं |  पिछले सत्र और सोमवार से शुरू होने वाले इस सत्र के मध्य यूपीए -2  ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि ,  मल्टीब्रांड खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ,  जैसे कदम उठाये हैं तो पिछले सत्र के महिला आरक्षण , खाद्य सुरक्षा ,परमाणु जबाबदेही , साम्प्रदायिक सौहाद्र जैसे महत्वपूर्ण विधेयक पहले से ही पेंडिंग पड़े हैं | इनमें से , सभी का , देशवासियों और विशेषकर आम देशवासियों के साथ बहुत सीधा और गहरा संबंध है |
                                          यदि विपक्ष गंभीरता पूर्वक और ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करे तो वह सरकार को अनेक मामलों में अपने कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर कर सकता है | बजट सत्र समाप्त होने के बाद से लेकर अभी तक का समय आम जनता के लिहाज से बहुत ही त्रासदायी , मुश्किलों से भरा गुजरा है | जिन उम्मीदों और विश्वास के साथ लोगों ने कांग्रेस को दुबारा और अधिक सांसदों के साथ लोकसभा में भेजा था , यूपीए - 2  ने न केवल उन उम्मीदों को बुरी तरह तोड़ा है बल्कि "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ " जैसे नारे पर जिन लोगों ने  कुछ  अधिक भरोसा कर लिया था , उन्हें लग रहा है कि उनके साथ विश्वासघात हो गया है | यहाँ मैंने विपक्ष से केवल गंभीरता और ईमानदारी की ही उम्मीद रखी है | एकता की मिसाल तो वे  5 जुलाई को पेश कर चुके हैं , जब पेट्रोलियम पदार्थों  के मूल्यों में वृद्धि तथा मंहगाई के खिलाफ  भारत बंद के सवाल पर ही भाजपा तथा गैरभाजपा दलों ने तो अलग अलग आह्वान किया ही , लालू और पासवान ने पांच दिनों के बाद 10 जुलाई को बिहार बंद किया |
                                               संसद के मानसून सत्र में विपक्ष के पास इतने मुद्दे हैं कि वह चाहे तो सरकार को वाकई में परेशानी में डाल सकती है | मंहगाई , यूनियन कारबाईड गैस कांड के मुकदमे में भोपाल की अदालत में हुए फैसले से उठे बड़े राजनीतिक बवाल , गोलीकांडों से अचानक खराब  हुए कश्मीर के हालात , भारत-पाकिस्तान विदेश मंत्री स्तरीय वार्ता के फुस्स होने  , देश के विभिन्न भागों में हुई हाल की दुर्घटनाएं , हाल की  सेंथिया में हुई रेल दुर्घटना , जनगणना में जाती को शामिल करने का सवाल  और सरकार के कुछ मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले ऐसे हैं जो विपक्ष यदि ईमानदारी से उठाये तो सरकार को बेकफुट पर जाने को मजबूर किया जा सकता है  | पर , सत्ता पक्ष की अनेक कमजोरियों के मुकाबले में  विपक्ष की कुछ कमजोरियां ही उसे भारी हैं | पर, उसे अपनी कुछ ही कमजोरियां बहुत भारी पड़ती हैं | अपने छै वर्षों के कार्यकाल के दौरान यूपीए विपक्ष के अंदर की फूट और विभिन्न मुद्दों पर उसके अंदर के मतभेदों को भुनाने में जबर्दस्त ढंग से कामयाब रहा है | अभी भी महिला आरक्षण विधेयक और हिन्दू उग्रवाद के खिलाफ विधायी पहल वे दो खास अस्त्र हैं , जो विपक्षी एकता को ध्वस्त करने के लिए काफी से ज्यादा हैं और सरकार के पास सुरक्षित रखे हैं |
                                           इसके अतिरिक्त गुड्स एंड सर्विसेज टेक्स तथा डायरेक्ट टैक्स कोड हैं जो देशवासियों के साथ सीधा और गहरा सम्बन्ध रखते हैं | वित्तमंत्री  प्रणव मुखर्जी का कथन बड़े बड़े अर्थशास्त्रियों की समझ में भले ही आता हो पर साधारण जनता को तो यह  जीसटी के नाम से धोखा धड़ी ही लगेगी कि जीसटी लागू होने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था बढकर दो खरब की हो जायेगी | प्रणव मुखर्जी के अनुसार जीसटी से भारतीय उद्योग और व्यापार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक हो जायेंगे | विश्वव्यापार संगठन लगभग पिछले एक दशक से लगातार विकासशील देशों और विशेषकर भारत पर कर ढाँचे को इस तरह बदलने के लिए दबाव डाल रहा था कि भारत सहित सभी विकासशील देशों में वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर याने अमरीका और यूरोप की बराबरी पर आ जायें | भारतीय अर्थव्यवस्था अभी एक खरब डालर की है जो जीसटी  लागू होने के कुछ समय बाद दो खरब की हो जायेगी | इसका अर्थ हुआ देशवासियों को आज की तुलना में लगभग दुगना कर चुकाने के लिए तैयार हो जाना चाहिये | सरकार पेट्रो उत्पादों पर पहले से ज्यादा टैक्स लेती है , इसलिए इन्हें जीसटी से बाहर रखा जा रहा है | मतलब , जीसटी को लेकर सरकार जिस एकीकृत अप्रत्यक्ष कर ढाँचे की बात कर रही है , वह वास्तविकता में हो नहीं रहा |
                                             पर , आज जब हम मानसून सत्र प्रारंम्भ होने के ठीक पहले के राजनीतिक हालात को देखते हैं , तो , मायूसी के साथ सोचना पड़ता है कि लोकसभा का यह मानसून सत्र भी पिछले अनेक सत्रों के समान आम जनता से कोई भी संबंध न रखने वाले मुद्दों पर होने वाले हंगामों की भेंट न चढ़ जाए | फिलहाल भाजपा और कांग्रेस के बीच गुजरात राज्य के गृह मंत्री अमित शाह के मामले को लेकर चल रहा वाक् युद्ध तो यही संकेत दे रहा है कि मानसून सत्र में हंगामा जनता के मुद्दों को लेकर नहीं बल्कि अमित शाह के मामले में , केंद्र सरकार के ऊपर सीबीआई के दुरूपयोग को लेकर होगा | मेरा ऐसा सोचना कतई नहीं है कि केंद्र में सत्तारूढ़ सरकारें सीबीआई या अन्य किसी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल विरोधियों को सेट राईट करने के लिए कभी नहीं करती हैं | केंद्र में कभी भी  रही  कोई भी सरकार इसका अपवाद नहीं है | पर , इस मामले में सीबीआई को केंद्र सरकार ने नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने जांच के लिए निर्देशित किया था | मामले के सच और झूठ होने से परे , एक दो अपवादों को छोडकर , ऐसे सभी मामलों का हश्र क्या होता है , हम सभी जानते हैं | अमित शाह के लिए सबसे अच्छा होता कि वे स्वयं को निर्दोष बताते हुए सीबीआईए के सुपुर्द हो जाते और जैसा कि उनके वकील बताते हैं कि सीबीआई का पक्ष बहुत कमजोर है , सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कम से कम समय में छोड़ दिया होता | यही ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के डायरेक्टर को फटकार भी लगाई होती | यह भी हो सकता है कि सीबीआई के डायरेक्टर को अपना पद भी छोडना पड़ सकता था | पर भाजपा और शाह के द्वारा अपनाया गया रवैया तो किसी को भी चौंकाने वाला है | इन पंक्तियों के लिखे जाने तक शाह गायब हैं और भाजपा सीबीआई के दुरुपयोग के लिए केंद्र सरकार को कोस रही है | जहां तक प्रधानमंत्री के भोज को ठुकराने का सवाल है , वह कोई मुद्दा नहीं है  | अतीत में अनेक राजनीतिक दल ऐसा कर चुके हैं |                                               मेरा सरोकार इससे कुछ  अलग है | जब देश का सबसे बड़ा न्यायलय स्वयं किसी जांच की मोनिटरिंग करता है और आदेश देता है , वह भी एक ऐसे मामले में , जो ऊपरी  तौर पर एक कोल्ड ब्लडेड मर्डर दिखाई पडता हो , में समझता हूँ कि यह सभी की जिम्मेदारी हो जाती है , विशेषकर राजनीतिज्ञों की तो ज्यादा ही कि देश के सर्वोच्च न्यायलय के उद्देश्यों , मन्तव्य तथा जांच प्रक्रिया का आदर करें |

                                 बहरहाल , देश की दो बड़ी पार्टियों के बीच बड़ा तनाव जनता के सवालों को लेकर नहीं , एक मंत्री को लेकर उभरा है | भारतीय राजनीति में ऐसी परिस्थिति अतीत में भी अनेकों बार आई है , जब लोकसभा को ऐसे मामलों पर ठप्प  किया गया है , जिनका जनता की रोजमर्रा की जिंदगी से कोई वास्ता नहीं रहा | भारतीय राजनीति का कहें या कि भारत की जनता का ,  यह अजीब दुर्भाग्य है कि जनता की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल ही यह भूल जाते हैं कि उनके हर कदम के नीचे दबती जनता ही है | देखिये , मानसून सत्र में क्या होता है ?  हंगामें में न धुल जाए यह सत्र भी |
                                                                                     

                                                                                              अरुण कान्त शुक्ला