Sunday, July 25, 2010

मानसून सत्र न धुल जाए हंगामें में ----

                                           सोमवार , 26 , जुलाई , से , लोकतंत्र के सबसे बड़े मंच लोकसभा का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है | देशवासियों के बहुत बड़े हिस्से की हार्दिक इच्छा है कि उनकी जिंदगी से सम्बंधित समस्याओं पर लोकसभा के अंदर सरकार और विपक्ष दोनों गंभीरतापूर्वक बहस करें , जिससे कुछ ऐसे उपाय निकलें और नीतियां बनें , जो आम आदमी को राहत पहुंचाएं |  पिछले सत्र और सोमवार से शुरू होने वाले इस सत्र के मध्य यूपीए -2  ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि ,  मल्टीब्रांड खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ,  जैसे कदम उठाये हैं तो पिछले सत्र के महिला आरक्षण , खाद्य सुरक्षा ,परमाणु जबाबदेही , साम्प्रदायिक सौहाद्र जैसे महत्वपूर्ण विधेयक पहले से ही पेंडिंग पड़े हैं | इनमें से , सभी का , देशवासियों और विशेषकर आम देशवासियों के साथ बहुत सीधा और गहरा संबंध है |
                                          यदि विपक्ष गंभीरता पूर्वक और ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करे तो वह सरकार को अनेक मामलों में अपने कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर कर सकता है | बजट सत्र समाप्त होने के बाद से लेकर अभी तक का समय आम जनता के लिहाज से बहुत ही त्रासदायी , मुश्किलों से भरा गुजरा है | जिन उम्मीदों और विश्वास के साथ लोगों ने कांग्रेस को दुबारा और अधिक सांसदों के साथ लोकसभा में भेजा था , यूपीए - 2  ने न केवल उन उम्मीदों को बुरी तरह तोड़ा है बल्कि "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ " जैसे नारे पर जिन लोगों ने  कुछ  अधिक भरोसा कर लिया था , उन्हें लग रहा है कि उनके साथ विश्वासघात हो गया है | यहाँ मैंने विपक्ष से केवल गंभीरता और ईमानदारी की ही उम्मीद रखी है | एकता की मिसाल तो वे  5 जुलाई को पेश कर चुके हैं , जब पेट्रोलियम पदार्थों  के मूल्यों में वृद्धि तथा मंहगाई के खिलाफ  भारत बंद के सवाल पर ही भाजपा तथा गैरभाजपा दलों ने तो अलग अलग आह्वान किया ही , लालू और पासवान ने पांच दिनों के बाद 10 जुलाई को बिहार बंद किया |
                                               संसद के मानसून सत्र में विपक्ष के पास इतने मुद्दे हैं कि वह चाहे तो सरकार को वाकई में परेशानी में डाल सकती है | मंहगाई , यूनियन कारबाईड गैस कांड के मुकदमे में भोपाल की अदालत में हुए फैसले से उठे बड़े राजनीतिक बवाल , गोलीकांडों से अचानक खराब  हुए कश्मीर के हालात , भारत-पाकिस्तान विदेश मंत्री स्तरीय वार्ता के फुस्स होने  , देश के विभिन्न भागों में हुई हाल की दुर्घटनाएं , हाल की  सेंथिया में हुई रेल दुर्घटना , जनगणना में जाती को शामिल करने का सवाल  और सरकार के कुछ मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले ऐसे हैं जो विपक्ष यदि ईमानदारी से उठाये तो सरकार को बेकफुट पर जाने को मजबूर किया जा सकता है  | पर , सत्ता पक्ष की अनेक कमजोरियों के मुकाबले में  विपक्ष की कुछ कमजोरियां ही उसे भारी हैं | पर, उसे अपनी कुछ ही कमजोरियां बहुत भारी पड़ती हैं | अपने छै वर्षों के कार्यकाल के दौरान यूपीए विपक्ष के अंदर की फूट और विभिन्न मुद्दों पर उसके अंदर के मतभेदों को भुनाने में जबर्दस्त ढंग से कामयाब रहा है | अभी भी महिला आरक्षण विधेयक और हिन्दू उग्रवाद के खिलाफ विधायी पहल वे दो खास अस्त्र हैं , जो विपक्षी एकता को ध्वस्त करने के लिए काफी से ज्यादा हैं और सरकार के पास सुरक्षित रखे हैं |
                                           इसके अतिरिक्त गुड्स एंड सर्विसेज टेक्स तथा डायरेक्ट टैक्स कोड हैं जो देशवासियों के साथ सीधा और गहरा सम्बन्ध रखते हैं | वित्तमंत्री  प्रणव मुखर्जी का कथन बड़े बड़े अर्थशास्त्रियों की समझ में भले ही आता हो पर साधारण जनता को तो यह  जीसटी के नाम से धोखा धड़ी ही लगेगी कि जीसटी लागू होने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था बढकर दो खरब की हो जायेगी | प्रणव मुखर्जी के अनुसार जीसटी से भारतीय उद्योग और व्यापार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक हो जायेंगे | विश्वव्यापार संगठन लगभग पिछले एक दशक से लगातार विकासशील देशों और विशेषकर भारत पर कर ढाँचे को इस तरह बदलने के लिए दबाव डाल रहा था कि भारत सहित सभी विकासशील देशों में वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर याने अमरीका और यूरोप की बराबरी पर आ जायें | भारतीय अर्थव्यवस्था अभी एक खरब डालर की है जो जीसटी  लागू होने के कुछ समय बाद दो खरब की हो जायेगी | इसका अर्थ हुआ देशवासियों को आज की तुलना में लगभग दुगना कर चुकाने के लिए तैयार हो जाना चाहिये | सरकार पेट्रो उत्पादों पर पहले से ज्यादा टैक्स लेती है , इसलिए इन्हें जीसटी से बाहर रखा जा रहा है | मतलब , जीसटी को लेकर सरकार जिस एकीकृत अप्रत्यक्ष कर ढाँचे की बात कर रही है , वह वास्तविकता में हो नहीं रहा |
                                             पर , आज जब हम मानसून सत्र प्रारंम्भ होने के ठीक पहले के राजनीतिक हालात को देखते हैं , तो , मायूसी के साथ सोचना पड़ता है कि लोकसभा का यह मानसून सत्र भी पिछले अनेक सत्रों के समान आम जनता से कोई भी संबंध न रखने वाले मुद्दों पर होने वाले हंगामों की भेंट न चढ़ जाए | फिलहाल भाजपा और कांग्रेस के बीच गुजरात राज्य के गृह मंत्री अमित शाह के मामले को लेकर चल रहा वाक् युद्ध तो यही संकेत दे रहा है कि मानसून सत्र में हंगामा जनता के मुद्दों को लेकर नहीं बल्कि अमित शाह के मामले में , केंद्र सरकार के ऊपर सीबीआई के दुरूपयोग को लेकर होगा | मेरा ऐसा सोचना कतई नहीं है कि केंद्र में सत्तारूढ़ सरकारें सीबीआई या अन्य किसी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल विरोधियों को सेट राईट करने के लिए कभी नहीं करती हैं | केंद्र में कभी भी  रही  कोई भी सरकार इसका अपवाद नहीं है | पर , इस मामले में सीबीआई को केंद्र सरकार ने नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने जांच के लिए निर्देशित किया था | मामले के सच और झूठ होने से परे , एक दो अपवादों को छोडकर , ऐसे सभी मामलों का हश्र क्या होता है , हम सभी जानते हैं | अमित शाह के लिए सबसे अच्छा होता कि वे स्वयं को निर्दोष बताते हुए सीबीआईए के सुपुर्द हो जाते और जैसा कि उनके वकील बताते हैं कि सीबीआई का पक्ष बहुत कमजोर है , सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कम से कम समय में छोड़ दिया होता | यही ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के डायरेक्टर को फटकार भी लगाई होती | यह भी हो सकता है कि सीबीआई के डायरेक्टर को अपना पद भी छोडना पड़ सकता था | पर भाजपा और शाह के द्वारा अपनाया गया रवैया तो किसी को भी चौंकाने वाला है | इन पंक्तियों के लिखे जाने तक शाह गायब हैं और भाजपा सीबीआई के दुरुपयोग के लिए केंद्र सरकार को कोस रही है | जहां तक प्रधानमंत्री के भोज को ठुकराने का सवाल है , वह कोई मुद्दा नहीं है  | अतीत में अनेक राजनीतिक दल ऐसा कर चुके हैं |                                               मेरा सरोकार इससे कुछ  अलग है | जब देश का सबसे बड़ा न्यायलय स्वयं किसी जांच की मोनिटरिंग करता है और आदेश देता है , वह भी एक ऐसे मामले में , जो ऊपरी  तौर पर एक कोल्ड ब्लडेड मर्डर दिखाई पडता हो , में समझता हूँ कि यह सभी की जिम्मेदारी हो जाती है , विशेषकर राजनीतिज्ञों की तो ज्यादा ही कि देश के सर्वोच्च न्यायलय के उद्देश्यों , मन्तव्य तथा जांच प्रक्रिया का आदर करें |

                                 बहरहाल , देश की दो बड़ी पार्टियों के बीच बड़ा तनाव जनता के सवालों को लेकर नहीं , एक मंत्री को लेकर उभरा है | भारतीय राजनीति में ऐसी परिस्थिति अतीत में भी अनेकों बार आई है , जब लोकसभा को ऐसे मामलों पर ठप्प  किया गया है , जिनका जनता की रोजमर्रा की जिंदगी से कोई वास्ता नहीं रहा | भारतीय राजनीति का कहें या कि भारत की जनता का ,  यह अजीब दुर्भाग्य है कि जनता की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल ही यह भूल जाते हैं कि उनके हर कदम के नीचे दबती जनता ही है | देखिये , मानसून सत्र में क्या होता है ?  हंगामें में न धुल जाए यह सत्र भी |
                                                                                     

                                                                                              अरुण कान्त शुक्ला

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