Saturday, October 23, 2010

अर्थ शास्त्र में नोबेल 2010 , बाजार की वास्तविकताओं से परे--


 

अर्थशास्त्र में दिया जाने वाला नोबेल , इस वर्ष " रोजगार के अवसरों की उपलब्धता के बावजूद बेरोजगारी कम नहीं होने के कारणों की पड़ताल " करने वाली थ्योरी पर अमरीका के पीटर डायमंड और डेल मोर्टेन्सन तथा ब्रिटेन के क्रिस्टोफ़र पिसारिदेस को दिया गया है | मैसच्यूसेट्स इन्स्टीट्यूट आफ़ टेकनालाजी में प्रोफ़ेसर पीटर डायमंड ने " खोज संघर्ष के सिद्धांत के साथ बाजार का विश्लेषण " करते हुए सिद्धांत दिया कि " किसी भी बाजार में विक्रेता और खरीददार को एक दूसरे को ढूँढने में कठिनाई होती है , क्योंकि इसमें बहुत समय और संसाधनों की जरुरत होती है |" नार्थवेस्ट यूनिवर्सिटी के डेल मोर्टेन्सन तथा लंदन स्कूल आफ़ इकानामिक्स तथा पालिटिक्स साईंस के क्रिस्टोफ़र पिसारिदेस ने इस सिद्धांत को श्रम बाजार पर लागू करते हुए निष्कर्ष दिया कि बहुत से बाजारों में नौकरी देने वाले ( नियोक्ता ) जिन्हें कर्मचारियों की तलाश है और ऐसे लोग ( बेरोजगार ) जिन्हें नौकरी की तलाश है , एक दूसरे के संपर्क में नहीं आ पाते क्योंकि तलाश की इस प्रक्रिया में समय और संसाधन दोनों की जरुरत होती है , जिसके कारण बाजार में " संघर्ष की स्थिति ( खोज संघर्ष ) " पैदा होती है | इसके फलस्वरूप , कुछ खरीददारों ( नियोक्ताओं ) की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं तो कुछ विक्रेता ( बेरोजगार ) भी अपना उत्पाद ( श्रम ) नहीं बेच पाते हैं | यही वजह है कि श्रम बाजार में रिक्तियां होने के बावजूद लोग बेरोजगार रह जाते हैं |

उनका विश्लेषण , श्रम बाजार में खड़े करोड़ों लोगों की बेरोजगारी को इतने सहज और सरल ढंग से उचित ठहराते हुए रुक नहीं जाता , बल्कि एक कदम आगे बढ़कर वे कहते हैं कि बेरोजगारी भत्ता देने से बेरोजगारी बढ़ती है क्योंकि फिर नौकरी तलाशने में लोग ज्यादा वक्त लेते हैं |
यह विश्लेषण , चाहे वे शास्त्रीय हों या नवशास्त्रीय , दोनों ही तरह के अर्थशास्त्रियों के पूर्व विश्लेषणों से अलग नहीं है , जिसके अनुसार लोग इसलिए बेरोजगार हैं क्योंकि या तो वे नियोक्ताओं के द्वारा न्यूनतम वेतन पर अपेक्षित उत्पादन क्षमता को पूरी करने में असमर्थ हैं या फिर लोग अपनी उत्पादन क्षमता की तुलना में अधिक वेतन की माँग कर रहे हैं | दोनों परिस्थितियों में निष्कर्ष एक ही है कि लोग बेरोजगार हैं क्योंकि उन्होंने ने बेरोजगार रहना पसंद किया है | इसलिए यह बेरोजगारी स्वैच्छिक है | उपरोक्त तीनों महानुभावों ने इसी थ्योरी को कुछ ज्यादा अच्छे सभ्य ढंग से प्रस्तुत किया है कि नियोक्ताओं और बेरोजगारों का मेल समय और संसाधनों की उपलब्धता की कमी की वजह से नहीं हो पाता है |

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि " ढूँढते ही रह गए " कि इस थ्योरी को नोबेल मिलने के दस दिनों के भीतर ही ब्रिटेन के वित्तमंत्री जार्ज आसबार्न ने सरकारी खर्चों में कटौती के प्रस्ताव संसद में पेश करते हुए लगभग पांच लाख नौकरियाँ अगले चार वर्ष में खत्म करने की घोषणा की है | यह केवल ब्रिटेन के साथ ही नहीं है | वैश्विक आर्थिक संकट के वर्तमान दौर में प्रत्येक देश में सरकारों तथा निजी नियोक्ताओं ने करोड़ों की संख्या में रोजगारशुदा लोगों का रोजगार छीनकर उनको पहले से बेरोजगार खड़े लोगों की फ़ौज में धकेला है | दरअसल , श्रम बाजार के अंदर रिक्तियों और बेरोजगारों , दोनों की एकसाथ मौजूदगी का यह एक बहुत ही सरलीकृत विश्लेषण है , जो "मुक्त बाजार" की अवधारणा के प्रबल समर्थक नवशास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के द्वारा दुनिया की विभिन्न देशों की सरकारों को मुंह छिपाने का अवसर प्रदान करने के
साथ ही नियोक्ताओं के द्वारा किये जा रहे श्रम के शोषण को ढकने का काम ही करेगा | अर्थशास्त्रियों के लिये , चाहे वे , शास्त्रीय हों या नवशास्त्रीय , विडम्बना यही है कि उनका मुक्त बाजार कभी भी उनके सिद्धातों पर नहीं चला बल्कि उन्हें हमेशा ही मुक्त बाजार की शैतानियों ( संकटों ) की तरफ से आँखें मूदनी पड़ी हैं या फिर पलटी मारकर अपने सिद्धातों को मुक्त बाजार के अनुसार ढालना पड़ा है | पूंजीवाद का इतिहास इस बात का गवाह है कि बाजार ने किसी भी दौर में अर्थशास्त्र के किन्ही भी नियमों का पालन नहीं किया है | बाजार को संचालित करने वाला एक ही नियम ( कारक ) है , और वह है , मुनाफ़ा और अधिक तेजी से अधिक मुनाफ़ा , चाहे उसके लिये बाजार को स्वयं को संकट में क्यों न डालना पड़े | मुक्त बाजार के इस व्यवहार पर इन अर्थशास्त्रियों का मुंह कभी नहीं खुलता और इनके बताए गए नुस्खे कभी भी बाजार को अनुशासित करने के लिये नहीं होते , बल्कि ये नुस्खे आमजनों की जेब से पैसा खींचकर बाजार की बेलगाम ताकतों के पास पहुंचाने का काम ही करते हैं | जैसा , हमने हाल के संकट के दौरान देखा कि दुनिया के करीब करीब सभी मुल्कों की सरकारों ने अपने अपने देश के भीमकाय वित्तीय और औद्योगिक निगमों को सार्वजनिक कोष से खरबों रुपयों के पैकेज दिए और जनता के ऊपर कर थोपे , जीवनोपयोगी वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि की और गरीब वर्ग के लिये चल रहे कल्याणकारी कार्यों के खर्चों में कटौतियां कीं |

वैश्विक आर्थिक संकट , जिससे पूरी दुनिया वर्ष 2008 से दो-चार हो रही है , बाजार की बेलगाम ताकतों की मुनाफे की हवस और उस मुनाफे को जल्दी से जल्दी बटोर लेने की लालच का ही परिणाम था , अब यह पुष्ट हो चुका है | अब समय आ गया है कि इन व इस तरह के सभी अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों की विकासपरक उपादेयता पर चर्चा की जाए | इन अर्थशास्त्रियों के द्वारा दिए गए सिद्धांतों में से किसी ने भी मुक्त बाजार की मुख्य समस्या "आर्थिक मंदी" या "दबाव" को रोकने के लिये कोई भी असरदायक रास्ता कभी नहीं सुझाया | नवशास्त्रीय अर्थशास्त्रीयों की पूरी फ़ौज , जिनमें हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी शामिल हैं , वर्तमान संकट को रोकने का कोई उपाय तो सुझा ही नहीं पाई , बल्कि उन्हें आने वाले संकट का भान तक नहीं हुआ | उनकी पूरी की पूरी जमात शेयर बाजारों में आ रहे उछाल पर मुग्ध होकर , बाजार के गुणगान करती रही | आश्चर्यजनक तो यह है कि मुक्त बाजार के पैरोकार इन अर्थशास्त्रियों को अपनी अक्षमता या असफलता पर शर्म भी महसूस नहीं हुई , उलटे , सरकारों के द्वारा दिए गए बेलआउट को उन्होंने अपने सिद्धांतों की विजय बताया और आज भी वे इन पैकेजों को जारी रखने की वकालत कर रहे हैं |

बद से बदतर यह है कि कोई भी आज यह बताने की स्थिति में नहीं है कि विश्वव्यापी आर्थिक संकट के किस मुकाम पर दुनिया आज खड़ी है | संकट के गुजर जाने या खत्म हो जाने के कयासों के बीच , हमें कुछ अर्थशास्त्रियों से , जिन्होंने वर्तमान संकट के लिये भी चेताया था , हमें अगले संकट की भविष्य वाणी भी मिल रही है | इस मध्य में "नियोक्ता और बेरोजगार , दोनों को एक दूसरे को तलाशने में कठिनाई है" का सिद्धांत उन अर्थशास्त्रियों को सुकून देने वाला है , जो मुक्त बाजार की अनुशासनहीनता के खिलाफ किसी भी तरह के कड़े फैसले से बचना चाहते हैं | नोबेल पुरूस्कार देने वाली समीती सहित मुक्त बाजार के हिमायतियों का कहना है कि यह सिद्धांत बेरोजगारी की स्थिति पर सरकार की आर्थिक नीतियों से पड़ने वाले प्रभाव को समझाने में मददगार होगा | प्रश्न यह है कि क्या वर्त्तमान में सरकारों के पास इस प्रभाव को जानने का कोई तरीका नहीं है क्या ? जबाब यही है कि एक नहीं ढेरों तरीके हैं , पर उनका नतीजा तब सामने आएगा , जब सरकारें बाजार को नियंत्रित करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति रखेंगी | जब आर्थिक सिद्धांत ही बाजार में हस्तक्षेप नहीं करने का है तो "ढूंढते रह गए" का सिद्धांत तो सरकारों के मुंह छिपाने के ही काम आएगा | यह उम्मीद करना बेकार ही है कि सरकारें बाजार में नियोक्ताओं और बेरोजगारों को मिलाने के कुछ नीतिगत कदम उठाएंगी |

तीनों नोबेल प्रतिष्ठितों के इस निष्कर्ष का , कि बेरोजगारी भत्ता देने से बेरोजगारी बढ़ती है , बहुत से देशों में स्वागत हो सकता है जहाँ बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है या जहाँ इसकी माँग की जाती है | वैसे इस निष्कर्ष का निहितार्थ यही है कि ऐसे लोग जिनकी आय का कोई साधन नहीं है , कोई सा भी काम कितनी भी अल्प मजदूरी पर करने के लिये तैयार हों | भूखा मरे , क्या न करे | तीनों नोबेल सम्मानितों ने ठीक वही सुझाया है , मुक्त बाजार जो माँग रहा है |

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