Saturday, April 30, 2011

वर्त्तमान सामाजिक परिदृश्य में श्रम की स्थिति –


वर्त्तमान सामाजिक परिदृश्य में श्रम की स्थिति –


देश के मेहनतकशों के माने हुए नेता और संगठन कर्ता बी.टी.रणदिवे ने 25 वर्ष पूर्व 1986 के मई दिवस पर कहा था मेहनतकशों के आन्दोलनों के अंदर फौरी मांगों और फौरी संघर्षों तक स्वयं को सीमित रखने की प्रवृति के घर कर गयी है , परिणामस्वरुप वे मई दिवस को मात्र औपचारिक घोषणाएं करने और अपनी कुछ फौरी मांगो को रखने के दिन के रूप में देखते हैं | इस प्रवृति के चलते उनका आंदोलन पूंजीवादी शासन को खत्म करने , समाजवाद और मजदूरों के प्रभुत्व को स्थापित करने के क्रांतिकारी लक्ष्य से भटक गया है | इन 25 वर्षों के दौरान भारत ही नहीं पूरे विश्व के मेहनतकशों और कर्मचारियों को वैश्वीकरण , मुक्त अर्थव्यवस्था और प्रतिद्वंदिता के नाम पर अमानवीय शोषण , श्रम अधिकारों पर हमलों , मालिकों और नियोजकों के द्वारा लगातार की जाने वाली वेतन कटौतियों और छटनी के दौर से गुजरना पड़ा है | भारत ही नहीं दुनिया के सभी देशों का शासक वर्ग और सरकारें इस दौर में श्रम के विरोध में खुलकर खड़ी दिखाई दी हैं |     


वैश्वीकरण के नाम पर लागू की गईं नवउदारवाद की नीतियों का सबसे बड़ा खामियाजा यदि किसी को भुगतना पड़ा है तो वह श्रम है | सामाजिक सरोकार के किसी भी क्षेत्र को विचार धारा के आधार पर इतना उपेक्षित पिछले तीन दशकों में नहीं किया गया , जितना श्रम को किया जा रहा है | वर्त्तमान  समाज जिसमें हम रहते हैं , आय , संपत्ति , लिंग , भाषा , नस्ल , जाती , धर्म , शिक्षा तथा और भी अनेक आधारों पर विभाजित है | इनमें से प्रत्येक विभाजन के ऊपर न केवल बहसें होती हैं बल्कि  अनेक भेदों को दूर करने के प्रयास भी सरकार और समाज के स्तर पर किये जाते हैं | लेकिन समाज में  श्रम के आधार पर मौजूद विभाजन के ऊपर शायद ही कभी या बहुत कम बात की जाती है | यहाँ तक कि बहस और चर्चा के लिये सबसे सशक्त माने जाने वाले मीडिया माध्यम टी.व्ही. और फिल्मों में भी मनोरंजक कार्यक्रमों से लेकर खबरों और विज्ञापनों तक सभी कार्यक्रम उपभोक्ता वस्तुओं और उपभोग पर ही केंद्रित हैं और समाज की सबसे बड़ी सच्चाई श्रम या श्रमिक सुनियोजित ढंग से परिदृश्य से बाहर कर दिए गये हैं | श्रम या श्रमिक को समाज का महत्वपूर्ण अंग मानकर नीति निर्धारक , सरकारें और नियोजक शायद ही कभी विस्तार से उनके बारे में विमर्श करते होंगे |  जब कभी श्रम या श्रमिक की बात होती है तो उन बातों के केन्द्र में श्रमिकों की छटनी , उनके वेतन और मजदूरी को कम करने की कोशिशें तथा मालिकों को उन्हें फायर करने के अधिकार देने के उपाय और श्रम के ठेकाकरण करने की नीतियां ही होती हैं | या फिर , विज्ञापनों में बड़े ही रोमांटिक ढंग से श्रम का बखान होता है | मसलन , एक किसान को बड़ा खुशहाल दिखाया जाएगा क्योंकि किसी विशेष कंपनी की खाद या दवाई डालकर उसने चार गुनी फसल पैदा की है या फिर कोई सरकार अपने कार्यों के विज्ञापन के लिये ऐसी कोई फिल्म जारी करेगी | कोई इंजीनियर या सेल्समेन इसलिए सफल है क्योंकि वो हेवर्ड्स या किंगफिशर का सोडा पीता है या कोई नौजवान इंटरव्यू में इसलिए अच्छा परफार्म करता है क्योंकि उसके पास फेयर एंड लवली या किसी डियोड्रेंट का आत्मविश्वास है | भारत के 12 करोड़ से अधिक बेरोजगारों और अर्द्धबेरोजगारों को मिलाकर विश्व के आधे अरब से ज्यादा बेरोजगारों और अर्द्धबेरोजगारों की बदहाली के ऊपर इनकी  नजरें नहीं जाती क्योंकि समाज के ऊपर हावी श्रम विरोधी विचारधारा को इस बदहाली को समाज की नज़रों से छुपाना है | किसानों की आत्महत्याएं खबर बन सकती हैं , पर उस पर कोई भी सार्थक बहस टाली जाती है क्योंकि वह व्यवस्था के दोषों को उजागर करेगी | मशीनों से लड़ते , खदानों के जहरीले वातावरण से त्रस्त , अपनी सृजनात्मकता को खो चुके , मजदूरों का जीवन , कार्यकुशलता और मुनाफे के नाम पर पापुलर मीडिया की नज़रों से दूर रहता है क्योंकि वह मीडिया भी समाज पर प्रभुत्व रखने वाले वर्ग के ही हाथों में है |

भूमंडलीकरण के पिछले तीन दशकों से दुनिया के सभी देशों की सरकारें बड़े कारपोरेट घरानों के सेवक के रूप में ही कार्य कर रही हैं | सरकारों के इस समर्पण के खिलाफ विश्व का संगठित मजदूर आंदोलन सशक्त प्रतिरोध नहीं खड़ा कर पाया और परिणामस्वरुप संघर्षों से पाए ऐसे अनेक अधिकार और सुरक्षा प्रावधान , जो मेहनतकशों को बाजार की लिप्सा और पूंजी के हमलों से बचाते थे , राजनीति-नैगम घरानों के गठजोड़ ने छीन लिये हैं | सामाजिक सुरक्षा की सबसे बड़ी योजना पेंशन भी निजीकरण की भेंट हो गयी है | मालिकान खदानों , कारखानों और अन्य कार्यस्थलों पर सुरक्षा कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए न केवल मजदूरों के जीवन को जोखिम में डाल रहे हैं बल्कि हजारों और लाखों अन्य लोगों के जीवन को भी जोखिम में डाल रहे हैं | प्रदूषण के उपायों की अनदेखी करने का नतीजा यह है कि कारखानों के आसपास के रिहाईशी इलाके के लोग गंभीर संकट में हैं |


दुनिया का मजदूर आंदोलन प्रभावशाली ढंग से पूंजी के इस आक्रमण का प्रतिरोध नहीं कर पाया है | वह  साम्राज्यवाद या उस अर्थ में अमेरिका की विदेश नीति का भी विरोध पूरी तरह से नहीं कर पाया है , जिसने दुनिया के हर हिस्से के मेहनतकश के जीवन को बदहाल किया है | इस परिस्थिति के बावजूद , यह कल्पना करना कठिन है कि मेहनतकश जमात के ऊपर हो रहे इन हमलों और साजिशों को बिना मजबूत ट्रेड यूनियनों और मिलिटेंट आन्दोलनों के रोका जा सकेगा | पिछले एक दशक में जी- 20 की बैठकों के दौरान हुए प्रदर्शन , ईराक युद्ध के खिलाफ अमेरिका , ब्रिटेन , फ्रांस सहित दुनिया के अन्य अनेक देशों में हुए प्रदर्शन तथा 2008 की मंदी के बाद कार्पोरेट्स को दिए गये पैकेजों के खिलाफ विश्व स्तर पर ट्रेडयूनियनों के द्वारा किया गया एकजुट विरोध इस आशा को जीवित रखता है कि विश्व स्तर पर मजदूर आंदोलन अपनी धार तेज कर सकता है | अब जबकि भूमंडलीकरण के सभी दावे थोथे साबित हो चुके हैं , मजदूर आंदोलन को लोगों को ज्यादा व्यापक सोच रखने के लिये प्रेरित करना चाहिए | कामगारों के जीवनयापन का स्तर गिर रहा है और उन्हें बच्चों की शिक्षा , डाक्टर की फीस , और मकान किराया या घर बनाने के लिये गये कर्ज की किश्त में से किसे प्राथमिकता दें , जैसे सवालों से जूझना पड़ रहा है | इस समाज की प्राथमिकताओं में बुनियादी दोष हैं , वे इसे जानते हैं , यूनियनों को इसे उनके लिये दोहराना होगा और उन्हें संघर्ष के लिये प्रेरित करना होगा | इसके लिये ट्रेड  यूनियनों के कर्ताधर्ताओं के पास सामाजिक नजरिये के साथ साथ आदर्श प्रस्तुत करने की इच्छाशक्ति और सेवाभावना का होना जरूरी है | उन्हें हमेशा याद रखना चाहिए कि वे समाज बदलने के अहं कार्य में लगे है और मजदूरों में से ही हैं , उनके बॉस या मालिक नहीं |

अरुण कान्त शुक्ला

Thursday, April 28, 2011

जरूरी है राजनीतिक लोकतंत्र को बचाए रखना -


जरूरी है राजनीतिक लोकतंत्र को बचाए रखना -

भारत के अंदर लोकतंत्र को लेकर जो एक बहस छिड़ी हुई है , उसमें लोकतंत्र , आंदोलन और अनशन को लेकर तरह तरह के विचार सुधी ज्ञानी जन दे रहे हैं | मेरा पिछले लेख पर एक सुधी पाठक ने दूरभाष पर मुझसे सीधा सवाल किया कि क्या लोकतंत्र से ज्यादा महत्वपूर्ण करप्शन को रोकना नहीं है | ब्लॉग पर भी एक विचार आया था | उस सुधी पाठक को और ब्लॉग पर दिए गये अपने विचारों को पुनः आप लोगों तक एक लेख के रूप में रखने का प्रयास कर रहा हूँ | स्वतंत्रता के सातवें दशक में पहुंचते पहुंचते शुरू हुआ विचार विमर्श आम और मध्यमवर्ग के अंदर एक अच्छी बहस का रूप ले रहा है | मेरा उद्देश्य किसी को जबाब देना न होकर , अपनी बात को रखना है | सभी को याद होगा कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने अंतरात्मा की आवाज पर राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी के बदले व्ही व्ही गिरी के पक्ष में कांग्रेस के बड़े तबके को लामबंद किया था और गिरी को जितवाया था | उस दौरान किसी अखबार या पत्रिका में मैंने एक लेख भारत में डेमोक्रेसी (लोकतंत्र) के ऊपर पढ़ा था | उस लेख में भारत के प्रथम प्रधान जवाहरलाल नेहरु के व्यक्तिगत इंग्लिश मित्र को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि ब्रिटिश राज के उत्तराधिकारी के रूप में नयी सरकार ( जवाहरलाल नेहरू की सरकार ) की भूमिका शासक और शासित वर्ग के बीच में एक खाड़ी के तरह ही है और नए शासकों की जीवनशैली और व्यवहार से इसी बात का प्रमाण मिलता है कि भारत को मिली राजनीतिक आजादी ने विदेशी शासकों को हटाकर देशी लोगों के समूह को शासन देने से अधिक भारतीयों को और कुछ नहीं दिया है | लेख में विस्तार से बताया गया ताकि भारत में संपन्न वर्ग के लोगों का शासन है जो अपनी विशेष स्थिति को बनाए रखने के लिये उन्हें प्राप्त राजनीतिक ताकत का उपयोग करते हैं | लेख का अंत कुछ इस तरह था कि भारत में लोकतंत्र ने भारत के बहुसंख्यक गरीब लोगों को संगठित होने और राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल करने की शक्ति इस तरह नहीं दी है कि वे अपने हितों को आगे बढाने में उसका इस्तेमाल कर सकें |

यह  कमेन्ट नेहरू के दौरान के लोकतंत्र के ऊपर था | क्या परिस्थतियां आज कुछ भिन्न हैं ? मुझे नहीं लगता | उस लेख को पढ़ने के लगभग चालीस वर्षों के बाद आज भी जहां तक गरीब और वंचित तबकों का सवाल है संसदीय लोकतंत्र उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा है | यह अब कोई छिपी हुई बात नहीं है कि यह लोकतंत्र जिसमें हम रह रहे हैं , लोगों को वे शक्तिशाली हैं , का आभास दिलाने का बहत अच्छा तरीका है , जबकि वास्तविकता में उन्हें उस लोकतंत्र की ताकत का बहुत थोड़ा अंश ही प्राप्त होता है और शासक वर्ग का प्रभुत्व समाज पर बनाए रखने में इस लोकतंत्र का भारी उपयोग होता है | उपरोक्त तमाम तथ्यों के बावजूद लोगों ने इस लोकतंत्र के लिये संघर्ष किया है और संघर्ष के बाद उसे प्राप्त किया है | इतना ही नहीं लोगों ने इस लोकतंत्र के ऊपर हुए हमलों के खिलाफ भी संघर्ष किया है और उसे बचाया है | इसलिए , उनके लिये यह महत्वपूर्ण है |          

 द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान बुरी तरह तबाह हुआ था | बीसवीं सदी के आठवें दशक के अंत तक उसका पुनर्निर्माण चलता रहा | उस दौरान , जैसा की बाह्य संकट के समय सभी देशों के आम लोगों और श्रमिक , किसान तबके के साथ होता है , जापान में भी आम जनता ने देश प्रेम से ओतप्रोत होकर अपने रोष को जाहिर करने काली पट्टी बांधकर कार्य करने का तरीका आंदोलन के विकल्प के रूप में अपनाया था और वहाँ सरकार हस्तक्षेप कर विवादों का निपटारा भी कराती थी | दुनिया के लगभग सभी पूंजीवादी देशों के मालिकान और सरकारें अपने मजदूरों को उसका उदाहरण देकर आंदोलन करने से रोकती थीं | इसी आधार पर सारे विश्व में यह मशहूर है कि जापान के लोग अत्यंत देशभक्त होते है और देश के लिये कितने भी घंटे और अत्यंत कम वेतन पर भी काम करने को तैयार रहते हैं | बीसवीं सदी के नौवें दशक के बाद से परिस्थिति में बहुत फर्क आ गया है और अब वहाँ भी आंदोलन के उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल होता है , जो शेष दुनिया में अपनाए जाते हैं | लेकिन , द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पैदा हुई उस भावना का अभी पूरी तरह अंत नहीं हुआ है | उस दौर की एक रोचक बात यह भी है कि एक तरफ जब जापान के आम लोग , मजदूर ,किसान इतने त्याग कर रहे थे , जापान के पूंजीपतियों , राजनीतिज्ञों , वहाँ काम कर रही ब्रिटेन और अमेरिका बेस मल्टीनेशनल कंपनियों ने इस तरह के किसी त्याग को नहीं दिखाया | उनका मुनाफ़ा वैसा ही बरकरार रहा , पूंजी का एकत्रीकरण तेज रफ़्तार से होता रहा और वहाँ के राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचार करने से नहीं चूके | यहाँ तक कि वहाँ के प्रधानमंत्री तक इसमें शामिल रहे |

 दरअसल एक ऐसी व्यवस्था में , जैसी में हम रह रहे हैं , आंदोलन का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता | पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपती वर्ग सरकार के दुधमुंहे बच्चे के समान होता है |सरकारें उसे स्पून फीडिंग कराती हैं और मजदूरों , किसानों तथा कम्मैय्या वर्ग को वे उस कुत्ते , बिल्ली के समान देखती हैं , जो उस बच्चे का दूध या निवाला झपटना चाहता है | इसीलिये सरकार का व्यवहार इस वर्ग के लिये प्रताड़ना से भरा होता है | एक उदाहरण काफी होगा , केन्द्र सरकार ने पिछले छै वर्षों में कारपोरेट सेक्टर को 21 लाख करोड़ से ज्यादा की राहतें आयकर , एक्साईज और कस्टम में छूट के मार्फ़त दी हैं और उसी सरकार ने इस बजट में यह कहते हुए वेट को पांच प्रतिशत कर दिया कि कुछ राज्यों में यह पांच है और कुछ राज्यों में चार , इसलिए एक समान करने इसे पांच किया जाता है |जबकि यह तय है कि बाकी वस्तुओं के छोड़ भी दिया जाए तो इससे खाने पीने की वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि तय है , जिसका सबसे ज्यादा असर आम आदमी पर ही पड़ना है | क्या समानता लाने इसे चार नहीं कर सकते थे ?  सोचिये , केन्द्र सरकार के द्वारा छटा वेतनमान दिए जाने के बाद केन्द्र के कर्मचारियों को , पीएसयू  के अधिकारियों को शायद 2006 या 2007 से दस लाख तक की ग्रेच्युटी का भुगतान हो रहा है , लेकिन यही क़ानून अन्य क्षेत्र के लोगों के लिये पिछले साल मई से लागू किया गया है | कारपोरेट के मामले में एलर्ट ओर आम जनता के मामले में आपराधिक लापरवाही इसका चारित्रिक गुण है |

आज तक जनता ने जो भी पाया है आंदोलन के माध्यम से पाया है | तानाशाही में आंदोलन कितना कठिन होता है , इसे उस देश  के लोग ही जानते हैं जो तानाशाही में रहते हैं | हमारे देश के लोग लोकतंत्र के चलते ही आंदोलन कर पाते हैं | इसलिए लोकतंत्र उनके लिये महत्वपूर्ण है | मिश्र में लोकतंत्र के लिये हुए आंदोलन में प्राप्त शीघ्र सफलता के पीछे वहाँ के मजदूरों और कर्मचारियों के आंदोलन का बहुत बड़ा योगदान है क्योंकि वे हड़ताल पर गये , लेकिन उनकी मांगे आज तक नहीं मानी गईं हैं | अन्ना के अनशन का अपना बहुत  महत्त्व है , उसे किसी भी तरह नकारा नहीं जा सकता | पर , ज़रा सोचिये , यदि अन्ना ने इस मांग पर आमरण अनशन किया होता कि शिक्षा के निजीकरण को सरकार के द्वारा दिए गये प्रोत्साहन और सहूलियतों के चलते झुण्ड के झुण्ड ढेरों हिंदी ,  अंग्रेजी स्कूल खुले है , जहां शिक्षकों को 500 , 700 , रुपयों से लेकर 1500 . 2000 या अधिकतम 3000 रुपयों में शिक्षा देने कहा जाता है और सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के मारे हमारे युवा उसे स्वीकार करने बाध्य हैं , इन शिक्षकों को वही वेतनमान दिया जाए , जो राज्य सरकारें अपने शिक्षा कर्मियों को दे रही हैं , तो क्या सरकार अन्ना के सामने झुकती और इससे भी अहं कि क्या अन्ना ऐसी किसी मांग को लेकर अनशन के लिये तैयार होते ?  भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई बहुत महत्त्व पूर्ण है , अन्ना का अनशन भी सफल रहा और बहुत महत्वपूर्ण है किन्तु श्रंगारिक है | मैं नहीं मानता , जैसा कि कुछ लोगों ने ( बड़े बड़े लोगों ने ) कहा कि 2जी का 176000 करोड़ रुपये से नरेगा या राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की किसी योजना का कोई भला सरकार ने किया होता | आखिर इस घपले में , राजा को रिश्वत मिली होगी , पर , फ़ायदा तो कारपोरेटस  को ही हुआ | यदि वे ज्यादा बोली देकर 2 जी खरीदते तो जनता से वसूल कर लेते और नहीं तो सरकार अन्य किसी छूट के माध्यम से उन्हें कम्पनसेट कर देती लेकिन उस पैसे को आम आदमी पर तो खर्च करने का कोई सवाल ही नहीं है | जो ऐसा सोचते हैं , वे मुगालते में हैं और हमारे देश में जो ,यह नया, भ्रष्ट अफसरों , भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और उनकी बिगड़ैल औलादों का नया वर्ग तैयार हुआ है , उस मुगालते को बढाने में बहुत बड़ा योगदान दे रहा है | लोकतंत्र हमारे लिये बहुत जरूरी है | इसका , जो विकल्प , सोवियत संघ के रूप में हमारे सामने था , उसके टूटने के बाद मजदूर आंदोलन वैसे भी कमजोर हुआ है | खुद हमारे देश में विकल्प पेश करने वाली राजनीतिक ताकतों की स्थिति कमजोर है | भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई महत्वपूर्ण और जरूरी है , पर , उससे ज्यादा जरूरी है राजनीतिक लोकतंत्र को बचाये रखना , जिसने अन्ना को अनशन पर बैठने का अधिकार दिया |

अरुण कान्त शुक्ला

Wednesday, April 27, 2011

क्या लोकतंत्र को बचाने के लिये अनशन का तरीका ब्लेकमेलिंग है ?


क्या लोकतंत्र बचाने के लिये अनशन का तरीका ब्लेकमेलिंग है ?

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त लोकपाल बिल लाने की मांग करते हुए आमरण अनशन पर बैठने और उसके बाद हुए घटना विकास ने देश के समाज और भारतीय राजनीति में न केवल उपरोक्त सवाल को केंद्रबिंदु में ला दिया है , बल्कि देश के लोकतंत्र और उसकी कार्यप्रणाली को भी खासी भ्रमपूर्ण स्थिति में डाल दिया है | भारत सरकार ने अन्ना के अनशन शुरू करने पर सबसे पहले उसे नैतिक ब्लेकमेल कहा था | पर , यह देखने के बाद कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में अन्ना को जबरदस्त समर्थन मिला है , सरकार ने करीब करीब सभी मांगे केवल मान ही नहीं लीं , तुरंत ही प्रधानमंत्री और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी से लेकर विपक्ष के प्रायः सभी नेताओं ने इसे लोकतंत्र की भारी जीत बताया | सिविल सोसाईटी के लोगों ने भी इसे लोकतंत्र की जीत बताया | इतना ही नहीं , जितने लोग अन्ना के समर्थन में खड़े हुए थे , चाहे वे देश के कोने कोने में रेलियां निकालने और धरना देने वाले हों या फिर ब्लॉग , फेसबुक , ट्वीटर के माध्यम से समर्थन देने वाले , सभी को उस समय ऐसा लगा कि सही मायनों में लोकतंत्र की जीत हुई है | कोई माने या न माने , किन्तु आम लोगों के मध्य इस भावना को बलवती बनाने में कुछ समय पहले मध्यपूर्व और विशेषकर मिश्र में हुए आंदोलन को मिली सफलता ने बेशुमार असर डाला और लगभग उसी तरह के आंदोलन में शामिल होकर सफलता हासिल करने से उनका विश्वास कि लोकतंत्र की जीत हुई है , पुख्ता हुआ |

इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी और भ्रष्टाचारियों और आर्थिक अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने और मामलों को रफा दफा करने में सहयोग करने की दोषी यूपीए-2 सरकार स्वयं में   बहुत बड़े नैतिक दबाव में थी | किन्तु , लोग , अन्ना के पीछे इस कारण से एकत्रित नहीं हुए थे कि अन्ना के आमरण अनशन में सरकार के ऊपर दबाव डालने की ताकत थी , बल्कि , लोग इसलिये इकठ्ठा हुए कि जिस कारण , और , सरकार तथा राजनीतिज्ञों की जिस नाकामी के खिलाफ अन्ना ने अनशन किया , वह कारण और परिस्थिति लोगों की भावनाओं के  साथ गहराई से जुड़ी थी | अन्ना के अनशन में सरकार को मजबूर करने का नैतिक दबाव , अनशन के उद्देश्य और कारण से आया | कुछ लोग अन्ना के अनशन को लोकतंत्र के लिये ब्लेकमेलिंग बताने , संविधान सभा में 25’नवंबर 1949 को दिए आम्बेडकर के भाषण का हवाला देते हैं , जिसमें आम्बेडकर ने आन्दोलन के क्रांतिकारी तरीकों , अवज्ञा और असहयोग आन्दोलनों तथा सत्याग्रह को गैरसंवैधानिक करार देते हुए न्यायायोचित नहीं माना था और उन्हें त्याग देने की सलाह दी थी |  अतिउत्साह या अतिविश्वास में दिए गये उस भाषण का केवल एक ही अर्थ निकलता था कि संविधान के तहत देश में लोकतंत्र के नाम पर एक चुनी गयी सरकार की तानाशाही कायम की जा रही है | आम्बेडकर के बताए हुए संवैधानिक उपायों का केन्द्र और राज्यों में की सत्ता में बैठे राजनीतिक दल कितना आदर करते हैं , यह हम समय समय पर देख चुके हैं , जब बोफोर्स के सवाल पर विपक्ष विहीन संसद चलती रही और हाल ही में पूरा शीतसत्र जेपीसी की मांग की भेंट चढ़ गया किन्तु सरकार ने उसे नहीं माना | इसलिए आम्बेडकर की प्रयोजन खो चुकी व्याख्या के आधार पर अन्ना हजारे के अनशन को लोकतंत्र को ब्लेकमेल करना नहीं कहा जा सकता | पर , यह लोकतंत्र की जीत भी नहीं है | यह कुछ लोगों की जीत है जिनकी कहीं भी कोई जबाबदेही और जिम्मेदारी नहीं है | यदि अन्ना संवैधानिक ढाँचे के तहत ड्राफ्ट कमेटी बनाने की मांग रखते और सरकार उसे स्वीकार करती तो इसे लोकतंत्र की जीत कहा जा सकता था |

पर ऐसा हुआ नहीं , सरकार स्पष्ट रूप से फिलहाल इस मुसीबत को टालो की मुद्रा में थी | लोगों को ऐसा लग सकता है कि सरकार ने अन्ना की मांगों के सामने समर्पण कर दिया है और उन्हें इससे खुशी मिली है , क्योंकि वे सार्वजनिक संस्थाओं , सरकारी उपक्रमों , मंत्रियों , नौकरशाहों और इन जनरल राजनीतिज्ञों के चरित्र में आयी गिरावट और उनके भ्रष्ट कारनामों से व्यथित थे और शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे | पर, एक महत्वपूर्ण तथ्य इस पूरे एपीसोड में भुला दिया गया कि जिन संस्थाओं के अंदर गिरावट आई है , वे सभी देश के चुनावी लोकतंत्र की महत्वपूर्ण स्तंभ हैं और जरुरत उन्हें नवीनीकृत करने और उनमें सुधार लाने की है , न कि उनको बरकाकर गैरलोकतांत्रिक तंत्र खड़ा करने की | भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं , दुनिया के अलग अलग देशों के लोकतंत्र में हुए प्रयोगों के अनुभव समेटे हुए हैं | विश्व की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में से एक भी ऐसी नहीं है , जिसमें प्रशासक शक्तियां किसी ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह में निहित हों , जिसकी जबाबदेही चुनावी लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति न हो तथा जो चुनावी लोकतंत्र से न गुजरे हों , फिर चाहे उसका स्वरूप कोई भी क्यों न हो | हम एक ऐसे लोकतंत्र में रहते हैं , जहां हम हमारे ही द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के द्वारा शासित होते हैं | देश का यह पूरा राजनीतिक संस्थान हमसे अलग नहीं है , हमारा हिस्सा है | पर , जैसे ही हम यह मान लेते हैं कि इनमें से अब कोई भी विश्वसनीय नहीं है और वे हमारा प्रतिनिधित्व नहीं करते , वैसे ही हम पूरे राजनीतिक लोकतंत्र को खोने की कगार पर चले जाते हैं |  इसका अर्थ कतई यह नहीं है कि हम हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों को हर करप्ट प्रेक्टिस करने की छूट दें या फिर उनका अंधानुसरण करें | नहीं उन्हें ठीक रास्ते पर लाने के लिये हमें ज्यादा से ज्यादा आंदोलन करने होंगे , सत्याग्रह करने होंगे | उनमें से जो भी भ्रष्ट हैं , उन्हें कड़ी से कड़ी सजा देने के लिये और भ्रष्टाचार के रास्तों को बंद करने के लिये नए क़ानून भी बनाने होंगे और ऐसे क़ानून बनाने के लिये सरकारों को मजबूर करने आंदोलन भी करने होंगे | लेकिन ऐसे कानूनों का स्वरूप देश के लोकतांत्रिक ढाँचे के साथ मेल बिठाता हुआ होना चाहिए | एक ऐसी व्यवस्था में , जिसमें हम रह रहे हैं , तानाशाही और फासिज्म के बीज हमेशा मौजूद रहते हैं , लोकतंत्र से ज़रा सा भी भटकाव उनके लिये खाद और पानी का काम करेगा | इसका हमेशा ख्याल रखना होगा |            

अरुण कान्त शुक्ला