Wednesday, April 27, 2011

क्या लोकतंत्र को बचाने के लिये अनशन का तरीका ब्लेकमेलिंग है ?


क्या लोकतंत्र बचाने के लिये अनशन का तरीका ब्लेकमेलिंग है ?

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त लोकपाल बिल लाने की मांग करते हुए आमरण अनशन पर बैठने और उसके बाद हुए घटना विकास ने देश के समाज और भारतीय राजनीति में न केवल उपरोक्त सवाल को केंद्रबिंदु में ला दिया है , बल्कि देश के लोकतंत्र और उसकी कार्यप्रणाली को भी खासी भ्रमपूर्ण स्थिति में डाल दिया है | भारत सरकार ने अन्ना के अनशन शुरू करने पर सबसे पहले उसे नैतिक ब्लेकमेल कहा था | पर , यह देखने के बाद कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में अन्ना को जबरदस्त समर्थन मिला है , सरकार ने करीब करीब सभी मांगे केवल मान ही नहीं लीं , तुरंत ही प्रधानमंत्री और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी से लेकर विपक्ष के प्रायः सभी नेताओं ने इसे लोकतंत्र की भारी जीत बताया | सिविल सोसाईटी के लोगों ने भी इसे लोकतंत्र की जीत बताया | इतना ही नहीं , जितने लोग अन्ना के समर्थन में खड़े हुए थे , चाहे वे देश के कोने कोने में रेलियां निकालने और धरना देने वाले हों या फिर ब्लॉग , फेसबुक , ट्वीटर के माध्यम से समर्थन देने वाले , सभी को उस समय ऐसा लगा कि सही मायनों में लोकतंत्र की जीत हुई है | कोई माने या न माने , किन्तु आम लोगों के मध्य इस भावना को बलवती बनाने में कुछ समय पहले मध्यपूर्व और विशेषकर मिश्र में हुए आंदोलन को मिली सफलता ने बेशुमार असर डाला और लगभग उसी तरह के आंदोलन में शामिल होकर सफलता हासिल करने से उनका विश्वास कि लोकतंत्र की जीत हुई है , पुख्ता हुआ |

इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी और भ्रष्टाचारियों और आर्थिक अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने और मामलों को रफा दफा करने में सहयोग करने की दोषी यूपीए-2 सरकार स्वयं में   बहुत बड़े नैतिक दबाव में थी | किन्तु , लोग , अन्ना के पीछे इस कारण से एकत्रित नहीं हुए थे कि अन्ना के आमरण अनशन में सरकार के ऊपर दबाव डालने की ताकत थी , बल्कि , लोग इसलिये इकठ्ठा हुए कि जिस कारण , और , सरकार तथा राजनीतिज्ञों की जिस नाकामी के खिलाफ अन्ना ने अनशन किया , वह कारण और परिस्थिति लोगों की भावनाओं के  साथ गहराई से जुड़ी थी | अन्ना के अनशन में सरकार को मजबूर करने का नैतिक दबाव , अनशन के उद्देश्य और कारण से आया | कुछ लोग अन्ना के अनशन को लोकतंत्र के लिये ब्लेकमेलिंग बताने , संविधान सभा में 25’नवंबर 1949 को दिए आम्बेडकर के भाषण का हवाला देते हैं , जिसमें आम्बेडकर ने आन्दोलन के क्रांतिकारी तरीकों , अवज्ञा और असहयोग आन्दोलनों तथा सत्याग्रह को गैरसंवैधानिक करार देते हुए न्यायायोचित नहीं माना था और उन्हें त्याग देने की सलाह दी थी |  अतिउत्साह या अतिविश्वास में दिए गये उस भाषण का केवल एक ही अर्थ निकलता था कि संविधान के तहत देश में लोकतंत्र के नाम पर एक चुनी गयी सरकार की तानाशाही कायम की जा रही है | आम्बेडकर के बताए हुए संवैधानिक उपायों का केन्द्र और राज्यों में की सत्ता में बैठे राजनीतिक दल कितना आदर करते हैं , यह हम समय समय पर देख चुके हैं , जब बोफोर्स के सवाल पर विपक्ष विहीन संसद चलती रही और हाल ही में पूरा शीतसत्र जेपीसी की मांग की भेंट चढ़ गया किन्तु सरकार ने उसे नहीं माना | इसलिए आम्बेडकर की प्रयोजन खो चुकी व्याख्या के आधार पर अन्ना हजारे के अनशन को लोकतंत्र को ब्लेकमेल करना नहीं कहा जा सकता | पर , यह लोकतंत्र की जीत भी नहीं है | यह कुछ लोगों की जीत है जिनकी कहीं भी कोई जबाबदेही और जिम्मेदारी नहीं है | यदि अन्ना संवैधानिक ढाँचे के तहत ड्राफ्ट कमेटी बनाने की मांग रखते और सरकार उसे स्वीकार करती तो इसे लोकतंत्र की जीत कहा जा सकता था |

पर ऐसा हुआ नहीं , सरकार स्पष्ट रूप से फिलहाल इस मुसीबत को टालो की मुद्रा में थी | लोगों को ऐसा लग सकता है कि सरकार ने अन्ना की मांगों के सामने समर्पण कर दिया है और उन्हें इससे खुशी मिली है , क्योंकि वे सार्वजनिक संस्थाओं , सरकारी उपक्रमों , मंत्रियों , नौकरशाहों और इन जनरल राजनीतिज्ञों के चरित्र में आयी गिरावट और उनके भ्रष्ट कारनामों से व्यथित थे और शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे | पर, एक महत्वपूर्ण तथ्य इस पूरे एपीसोड में भुला दिया गया कि जिन संस्थाओं के अंदर गिरावट आई है , वे सभी देश के चुनावी लोकतंत्र की महत्वपूर्ण स्तंभ हैं और जरुरत उन्हें नवीनीकृत करने और उनमें सुधार लाने की है , न कि उनको बरकाकर गैरलोकतांत्रिक तंत्र खड़ा करने की | भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं , दुनिया के अलग अलग देशों के लोकतंत्र में हुए प्रयोगों के अनुभव समेटे हुए हैं | विश्व की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में से एक भी ऐसी नहीं है , जिसमें प्रशासक शक्तियां किसी ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह में निहित हों , जिसकी जबाबदेही चुनावी लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति न हो तथा जो चुनावी लोकतंत्र से न गुजरे हों , फिर चाहे उसका स्वरूप कोई भी क्यों न हो | हम एक ऐसे लोकतंत्र में रहते हैं , जहां हम हमारे ही द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के द्वारा शासित होते हैं | देश का यह पूरा राजनीतिक संस्थान हमसे अलग नहीं है , हमारा हिस्सा है | पर , जैसे ही हम यह मान लेते हैं कि इनमें से अब कोई भी विश्वसनीय नहीं है और वे हमारा प्रतिनिधित्व नहीं करते , वैसे ही हम पूरे राजनीतिक लोकतंत्र को खोने की कगार पर चले जाते हैं |  इसका अर्थ कतई यह नहीं है कि हम हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों को हर करप्ट प्रेक्टिस करने की छूट दें या फिर उनका अंधानुसरण करें | नहीं उन्हें ठीक रास्ते पर लाने के लिये हमें ज्यादा से ज्यादा आंदोलन करने होंगे , सत्याग्रह करने होंगे | उनमें से जो भी भ्रष्ट हैं , उन्हें कड़ी से कड़ी सजा देने के लिये और भ्रष्टाचार के रास्तों को बंद करने के लिये नए क़ानून भी बनाने होंगे और ऐसे क़ानून बनाने के लिये सरकारों को मजबूर करने आंदोलन भी करने होंगे | लेकिन ऐसे कानूनों का स्वरूप देश के लोकतांत्रिक ढाँचे के साथ मेल बिठाता हुआ होना चाहिए | एक ऐसी व्यवस्था में , जिसमें हम रह रहे हैं , तानाशाही और फासिज्म के बीज हमेशा मौजूद रहते हैं , लोकतंत्र से ज़रा सा भी भटकाव उनके लिये खाद और पानी का काम करेगा | इसका हमेशा ख्याल रखना होगा |            

अरुण कान्त शुक्ला

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