Saturday, July 30, 2011

विकास ही नहीं रोजगार पर भी ध्यान दें



 

 
 

विकास ही नहीं रोजगार पर भी ध्यान दें

एन के सिंह
संसद सदस्य और पूर्व केंद्रीय सचिव
का लेख


 

रोजगार के आंकड़े हमारे विकास की कहानी का करुण पक्ष बयान करते हैं। सही विकास ज्यादा लोगों को रोजगार देकर ही हो सकता है।


 

इस साल देश की विकास दर आठ फीसदी हो सकती है, लेकिन अगले दो साल में इसके सात से साढ़े सात फीसदी तक ही रहने की आशंका है। वैसे तो अपने आप में यह कोई बड़ी चिंता की बात नहीं है। विकास दर का एक चक्र होता है, इसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। लंबे समय तक साढ़े आठ फीसदी की औसत विकास दर के बाद इसमें उतार आना ही था। पर कई विश्लेषकों का कहना है कि यह उतार किसी चक्र का हिस्सा नहीं है, इसका कारण तो हमारे ढांचे की समस्याएं हैं।


राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन यानी एनएसएसओ ने वर्ष 2004-05 से 2009-10 के जो आंकड़े पेश किए हैं, वे इसी ओर इशारा करते हैं। ये आंकड़े बताते हैं
कि इन पांच वर्षो में पहले के पांच साल की तुलना में रोजगार के कम अवसर
पैदा हुए हैं, पर अजीब यह है कि इस दौरान बेरोजगारी दर भी गिरी है। वैसे
नमूना सर्वेक्षण में कई तरह की खामियां होती हैं, लेकिन इससे इनकार नहीं
किया जा सकता कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में पांच करोड़ लोगों को रोजगार
देने का जो लक्ष्य रखा गया था, हम उसके करीब भी नहीं पहुंच सके हैं। इन
आंकड़ों के अनुसार इस दौरान रोजगार की दर 42 फीसदी से घटकर 39.2 फीसदी तक आ गई है। नरेगा पर जोर देने की वजह से रोजगार बाजार में आपूर्ति कम हुई है। एक और कारण यह भी है कि महिलाएं रोजगार की तरफ जाने की बजाय शिक्षा की तरफ जा रही हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि कुल रोजगार दर तीन फीसदी गिरी है, जबकि महिलाओं की रोजगार दर छह फीसदी गिरी है। इसका अर्थ है कि अब कम लोग, खासकर कम महिलाएं काम करना चाहती हैं, यानी इससे निर्भरता अनुपात बढ़ने का खतरा भी पैदा हो गया है।

देश में रोजगार की स्थिति कमजोर है। जबकि जो बेरोजगारी के आंकड़े हैं, उन्हें श्रम मंत्रालय ने जारी किया है और वे औपचारिक क्षेत्र के हैं। इसलिए
इसमें मौसमी बेरोजगारी, अप्रत्यक्ष बेरोजगारी और अल्प बेरोजगारी का कोई
जिक्र नहीं है। बेरोजगारी पर आंकड़े और सटीक होने चाहिए। किसी भी
अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए यह अच्छी बात नहीं है कि रोजगार को सब्सिडी या सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के जरिये बढ़ाया जाए। आमतौर पर विकास और रोजगार के रिश्ते को विकास के रोजगार पक्ष से मापा जाता है। इस नजरिये से देखें, तो एनएसएस के आंकड़े रोजगारहीन विकास की कहानी कह रहे हैं। इस लिहाज से यह चिंता की बात है।



इस पर अब क्या रणनीति होनी चाहिए? विकास और रोजगार को लेकर हमें सात पहलुओं पर ध्यान देना होगा। पहला तो यह कि हमें अलग-अलग तत्वों के बाजार में सुधार लाना होगा। खासकर श्रम, जमीन और पानी व खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधनों के बाजार में। इन सभी क्षेत्रों में सुधारों को लागू करना राजनैतिक रूप से मुश्किल काम है। ये चीजें समवर्ती सूची में हैं और इन्हें लेकर केंद्र और राज्यों को एक साथ ही कदम उठाने होंगे। दूसरे हमें रोजगार पैदा करने की नई रणनीति अपनानी होगी। पुरानी रणनीतियां नाकाम रही हैं। हमें श्रम आधारित तकनीक को और ज्यादा प्रोत्साहन देना होगा। उनके लिए विशेष आर्थिक और वित्तीय पैकेज बनाने होंगे। पूंजी आधारित तकनीक
से उत्पादकता बढ़ती है और लागत घटती है, लेकिन यह निवेश ज्यादा रोजगार नहीं पैदा करता। हमारी योजना रणनीति को अब रोजगार बढ़ाने वाली तकनीक को प्रोत्साहन देना चाहिए। इसके अलावा हमें निर्माण, यात्रा, पर्यटन, होटल, स्कूल, अस्पताल जैसे क्षेत्रों को प्रोत्साहन देना चाहिए, जहां निवेश के
अनुपात में रोजगार ज्यादा पैदा होते हैं।



इसके अलावा हमें रोजगार का प्रशिक्षण देकर क्षमता का विकास करना चाहिए, ताकि हमारे श्रमिक स्पर्धा में ज्यादा टिक सकें। रोजगार उन्मुखी शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था को बाजार की जरूरतों के मुताबिक ढाला जाना चाहिए। भारत में अभी जनसंख्यागत बदलाव हो रहे हैं, यहां भारी संख्या में युवा रोजगार बाजार में आ रहे हैं, जिससे निर्भरता अनुपात भी कम हो रहा है। भारत में नौजवानों की ज्यादा आबादी होने के कारण यहां श्रमिक भारी संख्या में उपलब्ध हैं। इस मामले में भारत औद्योगिक देशों के मुकाबले ज्यादा फायदा उठाने की स्थिति में है। जिसकी वजह से भारत में निवेश बढ़ रहा है और औद्योगिक देशों में उम्र। लेकिन इसमें कुशल श्रमिकों का अनुपात भी काफी महत्वपूर्ण है, जो अभी सिर्फ दस फीसदी है।



चौथे हमें कृषि और छोटे व मध्यम उद्योगों में सुधार पर भी ध्यान देना होगा।
भारत के ज्यादातर श्रमिक इन्हीं क्षेत्रों में काम करते हैं। इन सभी
क्षेत्रों में अल्परोजगार और विस्थापन का कोप रहता है।



पांचवां नंबर आता है श्रम सुधारों का। श्रमिकों की उत्पादकता को लगातार
बढ़ाते हुए इसी के साथ ज्यादा श्रम शक्ति के लिए व्यवस्था बनाना बहुत बड़ी
चुनौती है। अगर हमारे कानून, हमारे श्रमिक, और हमारे 1947 के औद्योगिक
विवाद अधिनियम को सुधारा जाए, तो मजदूरों की मांग भी बढ़ाई जा सकती है और उनकी माली हालत भी सुधारी जा सकती है।



छठे नंबर की जरूरत है उत्पादन क्षेत्र को ज्यादा स्पर्धा में खड़े होने
लायक बनाना, ताकि यह हमारी विकास और रोजगार रणनीति में बड़ी भूमिका अदा कर सके। हमें उत्पादन के छोटे केंद्र बनाकर और इनसे ज्यादा रोजगार पैदा करके विकास के नए इंजन तैयार करने होंगे। देश के सेवा क्षेत्र में जो क्रांति हुई है, उसे अगले स्तर तक ले जाना होगा। इसके सहारे पिछले दिनों छोटे शहरों और कस्बों में भारी संख्या में रोजगार पैदा हुए हैं।



सातवीं जरूरत है एक अच्छी और काम लायक सेज नीति को बनाना। विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी अभी एक फीसदी है, रोजगार के अवसर पैदा करने के लिहाज से इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ होना है। एनएसएसओ रिपोर्ट के बाद जो सच सामने आया है सरकार को उस पर एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए। एक ऐसी पुख्ता कार्य योजना भी तैयारी करनी चाहिए, जिसमें
रोजगारहीन विकास के दौर में भी रोजगार पैदा करने की रणनीति हो। रोजगार पैदा करने की चुनौती अर्थशास्त्र से कहीं आगे जाती है। हमारे राष्ट्रीय
परिदृश्य की सेहत पर इसके काफी गहरे असर होंगे।


 

खादी - गीत

खादी के धागे धागे में
अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा
अन्यायी का अपमान भरा
,

खादी के रेशे-रेशे में
अपने भाई का प्यार भरा,
माँ-बहनों का सत्कार भरा
बच्चों का मधुर दुलार भरा
,

खादी की रजत चंद्रिका जब
आकर तन पर मुसकाती है,
तब नवजीवन की नई ज्योति
अन्तस्तल में जग जाती है
,

खादी से दीन विपन्नों की
उत्तप्त उसास निकलती है,
जिससे मानव क्या पत्थर की
भी छाती कड़ी पिघलती है
,

खादी में कितने ही दलितों के
दग्य हृदय की दाह छिपी,
कितनों की कसक कराह छिपी
कितनों की आहत आह छिपी!

खादी में कितने ही नंगों
भिखमंगों की है आस छिपी,
कितनों की इसमें भूख छिपी
कितनों की इसमें प्यास छिपी!

खादी तो कोई लड़ने का
है जोशीला रणगान नहीं,
खादी है तीर कमान नहीं
खादी है खड्ग कृपाण नहीं
,

खादी को देख देख तो भी
दुश्मन का दल थहराता है,
खादी का झंडा सत्य शुभ्र
अब सभी ओर फहराता है!



 

चोरों का सरदार


वो ज़माना और था ,
जब बह जाती थी गन्दगी बरसात के साथ ,
अब बरसात दबी गन्दगी को बिखेर देती है ,
हमारे आपके सामने आसपास ,
गन्दगी तुम में और मुझमें हो न हो ,
हम बैठे जरुर हैं गन्दगी के ठीक बीचों बीच ,
ये वो गन्दगी है ,
जो न मेरी है न तुम्हारी है ,
ये कोई और है जिसने ,
बिखेर दी है अपनी गन्दगी ,
मेरे और तुम्हारे आसपास ,
ये कोई और कौन है ,
इसे तुम भी जानते हो ,
मैं भी जानता हूँ ,
वो कोई और ही तुम है ,
और वो कोई और ही मैं है ,
उसकी पूरी चौपड़ में ,
मैं भी एक सिक्का हूँ ,
तुम भी एक सिक्का हो ,
भ्रम मत पालो कि तुम्हारी हैसियत ,
किसी जिम्मेदार के जैसी है ,
या मैं हूँ कोई जिम्मेदार ,
जब तुम्हारी जिंदगी का ,
और मेरी जिंदगी का भी ,
जो कुछ है ,
उसी का है ,
यहाँ तक कि फैसले हमारे ,
लेता वह है तो ,
वह ही है जिम्मेदार ,
फिर बची क्या ,
सारी गन्दगी का ,
जिम्मेदार वही है ,
जो इस व्यवस्था में बैठा है ,
सबसे ऊपर ,
चोरों का सरदार |

Monday, July 18, 2011

वीरों की गाथाओं पर कामिक्स –


 वीरों की गाथाओं पर कामिक्स –   (राजकमल प्रकाशन)    

अनिन्दिता का अभिनव प्रयास –   समीक्षा

भारत क्या , किसी भी देश में छोटे बच्चों से लेकर टीनेजर तक को कामिक्स बहुत आकर्षित करते हैं | आज ऐसी किसी बाल पत्रिका की कल्पना करना भी मुश्किल है , जिसमें कामिक्स की स्टाईल में एक दो कहानियों का समावेश नहीं किया गया हो | भारत में कामिक्स काफी हद तक कामिक्स की पाश्चायत शैली से प्रभावित रहे हैं और प्रारंभिक दौर में कामिक्स के पात्र-कहानियां , उसका प्रस्तुतीकरण , चित्रण , सभी कुछ पाश्चायत शैली का ही हुआ करता था | कालान्तर में कामिक्स में भारतीयता के पुट दिए जाने के प्रयास हुए और भारतीय ढंग से लिखी कहानियों पर कामिक्स लिखे जाने लगे तथा उसी अनुरूप पात्र चित्रण और साज-सज्जा ने जगह ली | परन्तु , इस तरह लिखे गये कामिक्स की विषयवस्तु या तो पूर्णतः काल्पनिक होती थी , जैसे चाचा चौधरी , या फिर , इतिहास के नाम पर एकदम जाने पहचाने  अथवा पौराणिक कथाओं को ही कामिक्स के विषयों के रूप में लेखकों ने उठाया |


भारत में स्वतंत्रता के लिये सशस्त्र संघर्ष करने की परंपरा बहुत पुरानी है | अंग्रेजों के खिलाफ किये गये  संघर्षों में किसानों और आदिवासी किसानों के सशस्त्र संघर्षों का इतिहास 1857  के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से भी पुराना है | इस क्रांतिकारी इतिहास को कामिक्स का विषय बहुत कम या कभी नहीं बनाया गया |  इतिहास में दर्ज ये गाथाएं जनश्रुति के रूप में तो प्रचलित हैं ही और इन गाथाओं पर आधारित कहानियां और लेख भी मिलते हैं , लेकिन इनके संबंध में छोटी उमर से ही अपने क्षेत्र के क्रांतिकारियों को बच्चों को परिचित कराने वाले साहित्य या माध्यम का अभाव पूर्णतः परिलक्षित होता है | अनिन्दिता का प्रयास इस मायने में अभिनव और प्रशंसनीय है कि वे झारखंड के वीर आदिवासियों और आदिवासी राजाओं के संघर्षों की गाथाओं को रोचक ढंग से कामिक्स के माध्यम से सामने लाती हैं और उस अभाव की पूर्ति करती हैं |


राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित अनिन्दिता के इन कामिक्स के क्रांतिकारी नायक निम्न हैं , जिनके नाम पर कामिक्स हैं ;
1.     क्रांतिकारी शहीद जग्गू दीवान
2.     देशभक्त ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव
3.     विद्रोह नायक टिकैत उमराव सिंह
4.     सिपाही विद्रोह के सेना नायक पाण्डेय गणपत राय
5.     स्वतंत्रता संग्राम का महानायक गया मुण्डा
6.     छोटा नागपुर का वीर सहिन्सावादी जतरा भगत
7.     क्रान्तीनायक नीलाम्बर-पीताम्बर
8.     तेलंगा खडिया की अमर कहानी
9.     कोल विद्रोह का अमर नायक कुर्जी मांकी


क्रांतिकारी शहीद जग्गू दीवान में सिंहभूमी के आदिवासी नेता जग्गू दीवान की कहानी है | जग्गू दीवान ने छोटा नागपुर की दो क्रान्तियों का नेतृत्व किया था | जग्गू दीवान 1831-32 में हुए कोल विद्रोह के समय कर्रा स्टेट में मेनेजर थे |जग्गू दीवान में अपनी उसी हैसियत में अंग्रेजों के पिठ्ठू राजाओं का विरोध किया था | 1857 में , जिस समय , पहली आजादी की लड़ाई की लहर जोरों पर थी , वे सिंहभूमी के दीवान बने और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष को तेज किया | 19 नवंबर 1857 को वे अंग्रेजों के  सिख और सरायकेला सैनिकों से लड़ते हुए पकडे गये और उसी दिन उन्हें फांसी दे दी गयी |


देशभक्त ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव , विद्रोह नायक टिकैत उमराव सिंह , सिपाही विद्रोह के सेना नायक पाण्डेय गणपत राय , स्वतंत्रता संग्राम का महानायक गया मुण्डा और छोटा नागपुर का वीर अहिंसावादी जतरा भगत पर लिखे गये कामिक्स भी रोचक ढंग से प्रस्तुत किये गये हैं और उनमें एकरसता और सुग्राह्यता बनाये रखने में लेखिका कामयाब हुई है |


सभी पुस्तकों की साज-सज्जा और कहानियों का प्रस्तुतीकरण सुरुचिपूर्ण है और बच्चों के लिये सुबोध और सुग्राह्य है | देश की आजादी के इतिहास और क्रांतिकारी वीरों की गाथाओं को कामिक्स के रूप में प्रस्तुत करके लेखिका अनिन्दिता और राजकमल प्रकाशन ने एक सराहनीय कार्य किया है | इस बात की पूरी संभावना है कि कामिक्स बहुत लोकप्रिय होंगे और स्कूलों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में भी रखे जायेंगे | प्रत्येक पुस्तक का मूल्य 40 रुपये है , जिसे पुस्तक की साजा-सज्जा और आज के खर्चों के हिसाब से अधिक नहीं कहा जा सकता है |

अरुण कान्त शुक्ला   

    

Friday, July 8, 2011

मनमोहनसिंह –एक आत्मनिष्ठ , आत्ममुग्ध , अमेरिका परस्त प्रधानमंत्री—


मनमोहनसिंह –एक आत्मनिष्ठ , आत्ममुग्ध , अमेरिका परस्त प्रधानमंत्री—

मनमोहनसिंह , राष्ट्र तथा कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी में से किसके प्रति निष्ठ हैं ? या , मनमोहनसिंह , अभी तक के सबसे ज्यादा लाचार , असमर्थ और रिमोट कंट्रोल से याने सोनिया गांधी के निर्देशों पर चलने वाले प्रधानमंत्री हैं या उनमें त्वरित और विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता नहीं है | ये वे आरोप हैं , जो उनके विरोधी तबसे लगा रहे हैं , जबसे मनमोहनसिंह प्रधानमंत्री बने हैं | विशेषकर भाजपा , आरएसएस और आरएसएस के विहिप जैसे अनेक संगठन तथा स्वयं लालकृष्ण आडवानी ने इन आरोपों को इतनी बार दोहराया है कि मनमोहनसिंह के बारे में वो ज्यादा संगीन सच्चाई , जो देश के लोगों के सामने आना चाहिये थी , दब कर रह गयी है |

इतिहास मात्र घटनाओं का अभिलेख नहीं होता बल्कि घटनाओं के परिणामों की विवेचना और समालोचना का रिकार्ड भी होता है | जब कभी मनमोहनसिंह के ऊपर लगने वाले इन आरोपों की विवेचना होगी , तब इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि भारत में मनमोहनसिंह ने वर्ष 1991 में नवउदारवाद की जिन नीतियों के रास्ते पर देश को डाला , उसके बाद आने वाली सभी सरकारें , उन्हीं नीतियों पर चलीं , जो अमेरिका परस्त थीं और जिन पर चलकर देश की जनसंख्या का एक छोटा हिस्सा तो संपन्न हुआ लेकिन बहुसंख्यक हिस्सा बदहाली और भुखमरी को प्राप्त हुआ | इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि 1991 के बाद के दो दशकों में भारत में शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल रहा हो , जो सत्ता में न आया हो या जिसने सत्ता में मौजूद दलों को समर्थन न दिया हो | इसलिए जब भी मनमोहनसिंह के ऊपर सोनियानिष्ठ होने के आरोप लगाए जाते हैं तो राजनीतिक दलों का असली उद्देश्य मनमोहनसिंह के अमेरिका परस्त या वर्ल्ड बेंक परस्त चहरे को छिपाना ही होता है क्योंकि पिछले दो दशकों में सत्ता का सुख प्राप्त कर चुके सभी दल अमेरिका परस्त रह चुके हैं और इस मामले में कोई भी दूध का धुला नहीं है | यहाँ तक कि देश का मीडिया भी , विशेषकर टीव्ही मीडिया और बड़े अंग्रेजी दां अखबार भी इसमें शामिल हैं |

मनमोहनसिंह सत्ता प्रतिष्ठान से नजदीकी बनाए रखने वाले एक चतुर आत्मनिष्ठ नौकरशाह –

आजादी के बाद से लेकर अभी तक देश के किसी भी प्रधानमंत्री के बारे में इतनी बार और इतनी दावे के साथ यह कभी नहीं कहा गया कि वो व्यक्तिगत रूप से बहुत ईमानदार और सत्यनिष्ठ हैं , जितनी बार मनमोहनसिंह के बारे में कहा गया है | यहाँ तक कि उन्होंने स्वयं अपने को यह सर्टिफिकेट अनेक बार दिया है | यह बात अलग है कि बेईमानों को खुली छूट देकर , ईमानदार बने रहने के उनके इस गुण के कायलों की संख्या धीरे धीरे कम होती जा रही है | पर , जिस बात के लिये उनकी तारीफ़ करनी होगी , वह है सत्ता प्रतिष्ठान के साथ हमेशा नजदीकी बनाए रखने की उनकी बेशुमार योग्यता |

मनमोहनसिंह राजनीतिक पटल पर अचानक उभरे , जब 1991 में उन्हें भारत का वित्तमंत्री , तब बनाया गया , जब देश एक आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था | उसके पूर्व , मनमोहनसिंह भारत सरकार में वित्त सचिव , रिजर्व बेंक के गवर्नर और भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार के रूप में विभिन्न पदों पर काम कर चुके थे , पर , कभी भी उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने और लायसेंस – परमिट राज को समाप्त करने की बात नहीं की या उसकी मुखालफत नहीं की | यह समय , याने 1991 के पूर्व का समय , वह दौर था जब भारतीय राजनीति में सभी आर्थिक और सामाजिक मामलों को भारत के अंदर ही सुलझा लेना सम्मानजनक समझा जाता था और किसी भी तरह की विदेशी दखलंदाजी को हेय नज़रों से देखा जाता था | आज की दुनिया में एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में प्रतिष्ठित मनमोहनसिंह को भी उस समय नेहरूवियन नीतियों से कोई गुरेज नहीं था क्योंकि सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें मानता था | भारत के सत्ता प्रतिष्ठान के साथ इस नजदीकी का लाभ उन्हें यह मिला कि वे साऊथ एशिया के विभिन्न पदों पर से होते हुए वर्ल्ड बेंक से भी जुड़े | 1991 में , जब यह स्पष्ट हो गया कि अंतर्राष्ट्रीय देनदारियों से निपटने के लिये अब भारत के सम्मुख वर्ल्ड बेंक से लोन लेने के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं है और वर्ल्ड बेंक की शर्तें ही देश की आगे की राजनीती को निर्देश देंगी , उन्हें अपनी निष्ठा तुरंत नेहरूवियन नीतियों से बदलकर , अमरीकीपरस्त करने में कोई देर नहीं लगी | और वह व्यक्ति , जिसने कभी उन नीतियों के खिलाफ मुँह नहीं खोला था , वित्तमंत्री बनाते ही अपने पहले बजट भाषण में बोला कि लम्हों ने खता की थी , सदियों ने सजा पाई | इसीलिये पूर्व रक्षामंत्री नटवरसिंह ने कुछ समय पूर्व दावा किया था कि मनमोहनसिंह को वित्तमंत्री वर्ल्ड बेंक के दबाव में बनाया गया था | इससे पता चलता है कि मनमोहनसिंह के लिये सत्ता में बने रहना हमेशा एकमात्र उद्देश्य रहा है और उनका कोई स्वयं की कोई निष्ठा नहीं है | वे आत्मनिष्ठ हैं |

एक आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री –

मनमोहनसिंह एक आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री हैं | यह उनके स्वभाव की विशेषता है | जब वे वित्तमंत्री थे , देश में किसान आत्महत्या कर रहे थे ,पर , मनमोहनसिंह शेयर बाजार की उछालों को अपनी कामयाबी बता रहे थे , जिसका भांडा जल्दी ही फूट गया | अभी हाल ही में प्रमुख अखबारों के संपादकों के प्रश्न पूछने पर कि सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी सरकार के खिलाफ कड़ी टिप्पणियाँ की हैं , उन्होंने कहा कि मैंने जजों से बात की है – और उन्होंने कहा है कि उन्हें (जजों को ) मामले अपना मंतव्य स्पष्ट करने के लिये ऐसे सवाल जबाब करने पड़ते हैं | उन्होंने (जजों ने ) कहा कि मीडिया जिस तरीके से रिपोर्ट करता है , समस्या उससे पैदा होती है | मैं ( मनमोहनसिंह स्वयं ) सोचता हूँ कि प्रत्येक को संयम दिखाना चाहिये | जब मैं ( मनमोहनसिंह ) जजों से बात करता हूँ , वे खाते हैं कि वह सब हमारा उद्देश्य नहीं है , आदेश या निर्देश भी नहीं है | प्रेस की रिपोर्टों से सनसनी फैलती है | यह आत्ममुग्धता की पराकाष्टा है | क्या गोदामों में सड़ने  वाला चावल को गरीबों में बांटने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को देश के सर्वोच्च न्यायालय का प्रलाप कहा जा सकता है , जिसका कोई उद्देश्य न हो |

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि मनमोहनसिंह के इस बयान के दो दिन बाद ही सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल यूपीए सरकार को फटकार लगाई , बल्कि , निगरानी के लिये एक विशेष टीम भी गठित कर दी | यह बताता है कि वे वर्ल्ड बैंक और ओबामा के आदेशों के अलावा सभी को कुछ नहीं समझते हैं और उसी आधार पर अपनी और दुर्भाग्य से देश की भी सफलता को आंकते हैं |    

प्रतिबद्धता के अनुसार निर्णय लेने में लचर नहीं -

वे सभी जो यह सोचते हैं कि प्रधानमंत्री निर्णय लेने में अक्षम हैं या उनकी प्रशासनिक योग्यता लचर है , पूरी तरह गलत हैं | उनकी निर्णय लेने की क्षमता को उनकी नवउदारवाद के प्रति प्रतिबद्धता से आंकिये , सब स्फटिक की भांती साफ़ हो जायेगा |

मनमोहनसिंह ने अनेकों बार दावा किया कि वे गाँव के रहने वाले हैं , लेकिन उनका ह्रदय धनी और कारपोरेट भारत के लिये व्याकुल होता है , देश के गरीबों के लिये नहीं | इसके अनेक उदाहरण हैं | रोजगार गारंटी योजना बनाने में यूपीए को पूरे दो साल लग गये , जबकि सेज का क़ानून तुरंत पेश कर दिया गया | राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना बनाने में दो वर्ष से अधिक का समय लगा , लेकिन विश्वव्यापी मंदी ( जिसका असर भारत के उद्योगपतियों पर नहीं के बराबर हुआ , उलटे उसकी आड़ में उद्योगपतियों ने लोगों के रोजगार छीने गये ) के समय उद्योगपतियों को अनाप शनाप पैकेज देने में उन्हें कोई वक्त नहीं लगा | इस तरह के अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं , जो यह बताएँगे कि वे उनकी प्रतिबद्धता के हिसाब से निर्णय लेने में कभी नहीं हिचकिचाते | हाल में जिस खाद्य सुरक्षा क़ानून को सरकार अनेक कारण बताते हुए लाने में हिचक रही है , उसके पीछे भी प्रधानमंत्री और उनका थिंक टेंक ही है | वस्तुस्थिति यह है कि मनमोहनसिंह यह अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक विश्व बेंक , आईएमएफ , डब्लूटीओ और अमेरिका का वरदहस्त उनके साथ है , तब तक कांग्रेस में उनको कोई कुछ कर नहीं सकता |

अंतिम बात , भ्रष्टाचार , अक्षमता और अन्य तरह के अनेकों आरोप उन पर लगने के बावजूद वे यही कहते हैं कि अभी उनको दिया गया काम अधूरा है और उसे किये बगैर वे पद से नहीं हटेंगे | उन्होंने केवल एक बार प्रधानमंत्री के पद को छोडने की धमकी दी और पूरी कांग्रेस को न केवल उनके सामने झुकना पड़ा बल्कि सरकार के गिरने के खतरे को भी झेलना पड़ा | जानते हैं , कब , जब भारत –अमेरिका परमाणु समझौते के समय उन्हें ऐसा लगा कि कांग्रेस में सब लोग उनके साथ नहीं हैं , तब | क्या इससे पता नहीं चलता कि उनकी प्रतिबद्धता किसके साथ है ?

अरुण कान्त शुक्ला