Saturday, July 30, 2011

विकास ही नहीं रोजगार पर भी ध्यान दें



 

 
 

विकास ही नहीं रोजगार पर भी ध्यान दें

एन के सिंह
संसद सदस्य और पूर्व केंद्रीय सचिव
का लेख


 

रोजगार के आंकड़े हमारे विकास की कहानी का करुण पक्ष बयान करते हैं। सही विकास ज्यादा लोगों को रोजगार देकर ही हो सकता है।


 

इस साल देश की विकास दर आठ फीसदी हो सकती है, लेकिन अगले दो साल में इसके सात से साढ़े सात फीसदी तक ही रहने की आशंका है। वैसे तो अपने आप में यह कोई बड़ी चिंता की बात नहीं है। विकास दर का एक चक्र होता है, इसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। लंबे समय तक साढ़े आठ फीसदी की औसत विकास दर के बाद इसमें उतार आना ही था। पर कई विश्लेषकों का कहना है कि यह उतार किसी चक्र का हिस्सा नहीं है, इसका कारण तो हमारे ढांचे की समस्याएं हैं।


राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन यानी एनएसएसओ ने वर्ष 2004-05 से 2009-10 के जो आंकड़े पेश किए हैं, वे इसी ओर इशारा करते हैं। ये आंकड़े बताते हैं
कि इन पांच वर्षो में पहले के पांच साल की तुलना में रोजगार के कम अवसर
पैदा हुए हैं, पर अजीब यह है कि इस दौरान बेरोजगारी दर भी गिरी है। वैसे
नमूना सर्वेक्षण में कई तरह की खामियां होती हैं, लेकिन इससे इनकार नहीं
किया जा सकता कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में पांच करोड़ लोगों को रोजगार
देने का जो लक्ष्य रखा गया था, हम उसके करीब भी नहीं पहुंच सके हैं। इन
आंकड़ों के अनुसार इस दौरान रोजगार की दर 42 फीसदी से घटकर 39.2 फीसदी तक आ गई है। नरेगा पर जोर देने की वजह से रोजगार बाजार में आपूर्ति कम हुई है। एक और कारण यह भी है कि महिलाएं रोजगार की तरफ जाने की बजाय शिक्षा की तरफ जा रही हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि कुल रोजगार दर तीन फीसदी गिरी है, जबकि महिलाओं की रोजगार दर छह फीसदी गिरी है। इसका अर्थ है कि अब कम लोग, खासकर कम महिलाएं काम करना चाहती हैं, यानी इससे निर्भरता अनुपात बढ़ने का खतरा भी पैदा हो गया है।

देश में रोजगार की स्थिति कमजोर है। जबकि जो बेरोजगारी के आंकड़े हैं, उन्हें श्रम मंत्रालय ने जारी किया है और वे औपचारिक क्षेत्र के हैं। इसलिए
इसमें मौसमी बेरोजगारी, अप्रत्यक्ष बेरोजगारी और अल्प बेरोजगारी का कोई
जिक्र नहीं है। बेरोजगारी पर आंकड़े और सटीक होने चाहिए। किसी भी
अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए यह अच्छी बात नहीं है कि रोजगार को सब्सिडी या सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के जरिये बढ़ाया जाए। आमतौर पर विकास और रोजगार के रिश्ते को विकास के रोजगार पक्ष से मापा जाता है। इस नजरिये से देखें, तो एनएसएस के आंकड़े रोजगारहीन विकास की कहानी कह रहे हैं। इस लिहाज से यह चिंता की बात है।



इस पर अब क्या रणनीति होनी चाहिए? विकास और रोजगार को लेकर हमें सात पहलुओं पर ध्यान देना होगा। पहला तो यह कि हमें अलग-अलग तत्वों के बाजार में सुधार लाना होगा। खासकर श्रम, जमीन और पानी व खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधनों के बाजार में। इन सभी क्षेत्रों में सुधारों को लागू करना राजनैतिक रूप से मुश्किल काम है। ये चीजें समवर्ती सूची में हैं और इन्हें लेकर केंद्र और राज्यों को एक साथ ही कदम उठाने होंगे। दूसरे हमें रोजगार पैदा करने की नई रणनीति अपनानी होगी। पुरानी रणनीतियां नाकाम रही हैं। हमें श्रम आधारित तकनीक को और ज्यादा प्रोत्साहन देना होगा। उनके लिए विशेष आर्थिक और वित्तीय पैकेज बनाने होंगे। पूंजी आधारित तकनीक
से उत्पादकता बढ़ती है और लागत घटती है, लेकिन यह निवेश ज्यादा रोजगार नहीं पैदा करता। हमारी योजना रणनीति को अब रोजगार बढ़ाने वाली तकनीक को प्रोत्साहन देना चाहिए। इसके अलावा हमें निर्माण, यात्रा, पर्यटन, होटल, स्कूल, अस्पताल जैसे क्षेत्रों को प्रोत्साहन देना चाहिए, जहां निवेश के
अनुपात में रोजगार ज्यादा पैदा होते हैं।



इसके अलावा हमें रोजगार का प्रशिक्षण देकर क्षमता का विकास करना चाहिए, ताकि हमारे श्रमिक स्पर्धा में ज्यादा टिक सकें। रोजगार उन्मुखी शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था को बाजार की जरूरतों के मुताबिक ढाला जाना चाहिए। भारत में अभी जनसंख्यागत बदलाव हो रहे हैं, यहां भारी संख्या में युवा रोजगार बाजार में आ रहे हैं, जिससे निर्भरता अनुपात भी कम हो रहा है। भारत में नौजवानों की ज्यादा आबादी होने के कारण यहां श्रमिक भारी संख्या में उपलब्ध हैं। इस मामले में भारत औद्योगिक देशों के मुकाबले ज्यादा फायदा उठाने की स्थिति में है। जिसकी वजह से भारत में निवेश बढ़ रहा है और औद्योगिक देशों में उम्र। लेकिन इसमें कुशल श्रमिकों का अनुपात भी काफी महत्वपूर्ण है, जो अभी सिर्फ दस फीसदी है।



चौथे हमें कृषि और छोटे व मध्यम उद्योगों में सुधार पर भी ध्यान देना होगा।
भारत के ज्यादातर श्रमिक इन्हीं क्षेत्रों में काम करते हैं। इन सभी
क्षेत्रों में अल्परोजगार और विस्थापन का कोप रहता है।



पांचवां नंबर आता है श्रम सुधारों का। श्रमिकों की उत्पादकता को लगातार
बढ़ाते हुए इसी के साथ ज्यादा श्रम शक्ति के लिए व्यवस्था बनाना बहुत बड़ी
चुनौती है। अगर हमारे कानून, हमारे श्रमिक, और हमारे 1947 के औद्योगिक
विवाद अधिनियम को सुधारा जाए, तो मजदूरों की मांग भी बढ़ाई जा सकती है और उनकी माली हालत भी सुधारी जा सकती है।



छठे नंबर की जरूरत है उत्पादन क्षेत्र को ज्यादा स्पर्धा में खड़े होने
लायक बनाना, ताकि यह हमारी विकास और रोजगार रणनीति में बड़ी भूमिका अदा कर सके। हमें उत्पादन के छोटे केंद्र बनाकर और इनसे ज्यादा रोजगार पैदा करके विकास के नए इंजन तैयार करने होंगे। देश के सेवा क्षेत्र में जो क्रांति हुई है, उसे अगले स्तर तक ले जाना होगा। इसके सहारे पिछले दिनों छोटे शहरों और कस्बों में भारी संख्या में रोजगार पैदा हुए हैं।



सातवीं जरूरत है एक अच्छी और काम लायक सेज नीति को बनाना। विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी अभी एक फीसदी है, रोजगार के अवसर पैदा करने के लिहाज से इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ होना है। एनएसएसओ रिपोर्ट के बाद जो सच सामने आया है सरकार को उस पर एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए। एक ऐसी पुख्ता कार्य योजना भी तैयारी करनी चाहिए, जिसमें
रोजगारहीन विकास के दौर में भी रोजगार पैदा करने की रणनीति हो। रोजगार पैदा करने की चुनौती अर्थशास्त्र से कहीं आगे जाती है। हमारे राष्ट्रीय
परिदृश्य की सेहत पर इसके काफी गहरे असर होंगे।


 

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