Saturday, December 31, 2011

कुरबानियों की कीमत


सेवा निवृति पर मांगता थैली ,
कुरबानियों की कीमत लगाता है ,
मजदूरों का चाहे नेता समझे खुदको ,
मुझको तो भिखारी लगता है ,
 
चार पंक्तियाँ भेंट करते हुए , गिरीश पंकज की एक सुंदर कविता वाल पर साभार ले रहा हूँ | वे क्षमा करेंगे ..;
 
बातें बड़ी-बड़ी करता है अच्छा है
लेकिन क्या उसका जीवन भी वैसा है ?
कथनी-करनी में अंतर जो रखता है
इसका मतलब यही हुआ वो नेता है
केवल शब्दों को चरने से क्या होगा.
अच्छा है इंसान जो उसको जीता है
ढोंगी, पाखंडी, फरेब के सौदागर
किसको बोलें, किससे बोलें चलता है
नकली फूल यहाँ सम्मानित होते हैं
असली बेचारा कोने में सड़ता है
झूठ झूठ बस झूठ ही जिसका जीवन है
हीरो बन कर वही आजकल रहता है
प्रतिभा पर हँसती रहती है ये दुनिया
क्या बोलें ये दौर ही ऐसा-वैसा है
कहते है कि वो कविताएँ लिखता है
लेकिन हरकत से अपराधी लगता है
भेष बदल कर आ जाने से क्या होगा
पकडाता वो हुआ-हुआ जब करता है
मन की बातें 'फेसबुक ' में कह लो तुम
वैसे अपनी कौन यहाँ जो सुनता है?
पंकज अपनी राह चलों दुःख क्या करना
मंजिल को पाने में 'टाइम' लगता है

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