Sunday, January 15, 2012

यूं ही --


यूं ही --

यूं क्यूं ,
मुँह छिपाकर आते जाते हैं ,
जब कन्नी काटकर निकलना हो मुश्किल
बस मुस्करा कर निकल जाईये ,
यूं ही,
कहा होगा कबीर ने
निंदक नियरे राखिये ,
सच हर दौर में हाशिए पर रहा ,
यूं ही ,
जम्हूरियत जम्हूरियत करते नहीं थकते
मुल्क के सियासत दां ,
खून चूसने की ये मशीन अच्छी है ,
यूं ही ,
नहीं छोड़ा होगा नर्गिस ने रोना
अपनी बेनूरी पर ,
तुमसे उसकी मुलाक़ात जरुर हुई होगी ,
यूं ही ,
मोहब्बतें कामयाब नहीं होतीं  ,
फ़साने लाख बनने के बाद
जिंदगी एक अफसाना बनती है ,
अरुण कान्त शुक्ला -

2 comments:

girish pankaj said...

aap bhi kavitayen karane lage hain. aur theekthaak kar rahe hain. shabdon ki klatmak duniyaa mey aap sakriy rahen, yahi shubhkamna hai. kavitaa achchhee hai.

AK SHUKLA said...

गिरीश जी , बहुत बहुत धन्यवाद |