विडंबनाओं के देश में स्त्री-सुरक्षा..
दुनिया के किसी भी देश में रहने वाले इतनी विडंबनाओं के साथ नहीं जीते, जितनी
विडंबनाओं के साथ हमें भारत में जीना पड़ता है। धर्म, सम्प्रदाय और राजनीति से परे
हम भारतीयों में यदि कोई एकरूपता है, तो वह है, भारतीयों की सोच और कथनी, कथनी और
करनी में मौजूद पाखंड। भारतीय समाज
का वयस्क हिस्सा, चाहे वह पुरुष हो या महिला, अपने दैनंदिनी जीवन के प्रत्येक पल
को इसी दिखावे, बनावटीपन और ओढ़े हुए झूठ के साथ जीते हैं। वह चाहे गरीबों के नाम पर आंसू
बहाना हो, भ्रष्टाचार के नाम पर रोष जाहिर करना हो या फिर स्त्रियों की सुरक्षा को
लेकर चिंतित होना हो, हम अपने पाखंड को सरलता के साथ ओढ़े रहते हैं| हमारी सबसे बड़ी
विडम्बना यही है कि चरित्र और नैतिकता के स्तर पर मूल्यों में दोहरापन हमें कभी
कचौटता भी नहीं है।
किसी मनुष्य को जीवन में जिन तीन चीजों की कामना
सबसे अधिक होती है, वे तीनों ही भारतीय सन्दर्भों में स्त्री रूप हैं| लक्ष्मी,
सरस्वती और दुर्गा| धन, बुद्धि और शक्ति। सामान्य
तौर पर किसी घर में घर में कन्या का जन्म होने पर कहा जाता है कि लक्ष्मी घर में
आई है| पर, उसी लक्ष्मी को कोख में ही मार देने की घटनाएं सर्वाधिक भारत में होती
हैं। वही लक्ष्मी दैहिक व्यापार में धकेली जाती है
और धन कमाने का साधन मानी जाती है। विडम्बना
यह है कि लक्ष्मी को दैहिक व्यापार में ढकेलने के काम में भी सहायक लक्ष्मी ही
बनती है।
सरस्वती ज्ञान की देवी है। उन्हीं
सरस्वतियों को पढ़ लिखकर क्या करेंगी, कहकर, ज्ञान प्राप्ति से वंचित रखा जाता है।
दुर्गा की उपासना करके शक्ति प्राप्त की जाती है| दुर्गा के उन्हीं
अवतारों को घरों में समाज में लतियाया जाता है। यह
सब करते हुए सोच के स्तर पर समाज में
श्रेणी या स्तर का कोई भेदभाव नहीं है। उच्च
वर्ग हो, मध्य वर्ग हो या निचला तबका, आर्थिक आधार पर हो या जाती, धर्म और
सम्प्रदाय, सोच के स्तर पर सभी समान हैं| स्त्रियाँ पैर की जूती से भी कम हैं।
यह सोच के स्तर पर है। स्त्रियाँ
पूजनीय हैं, उनका सम्मान होना चाहिये। यह
कथनी के स्तर पर है। उन्हें दबाकर रखना
चाहिये और अवसर मिलते ही उनका उपभोग किया जा सकता है, यह करनी के स्तर पर है।
दिल्ली सहित पूरे देश में पिछले एक पखवाड़े से
चल रहे प्रदर्शनों में यह विडम्बना आंदोलन, राजनीति और प्रशासन तीनों स्तर पर
खुलकर सामने आई है। यह क्या कम विडंबनापूर्ण है
कि जब इंडिया गेट पर युवाओं का रोषपूर्ण प्रदर्शन अपने चरम पर था, इलेक्ट्रानिक
मीडिया के तथाकथित बुद्धिमान और विवेकपूर्ण रिपोर्टर और एंकर गला फाड़ फाड़ कर
दिल्ली पोलिस ही नहीं, पूरे देश की पोलिस व्यवस्था को कोस रहे थे, देश की सरकार ही
नहीं, सारे दलों के सारे राजनीतिज्ञ घडियाली आंसू बहाकर संवेदनशील दिखने की कोशिश
कर रहे थे, दुनिया की सबसे बदनाम पत्रिका और बदनाम क्लबों का समूह प्लेब्वॉय भारत
में उसके खुलने वाले क्लबों में शराब परोसने के लिए रखी जाने वाली “बनीज”
याने लड़कियों के लिए पहनने वाली पोशाक का प्रदर्शन कर रहा था, पर, न तो इंडिया गेट
पर ”व्ही
डिमांड जस्टिस” के
नारे लगाने वालों ने, न ही चैनलों पर बलात्कार के खिलाफ प्रवचन झाड़ने वाले महिलाओं
के महिला और पुरुष पक्षधरों ने, न ही गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाने वाले इलेक्ट्रानिक
मीडिया के रिपोर्टरों और एंकरों ने, न ही प्रिंट मीडिया के अखबारों ने और न ही
घडियाली आंसू बहाने वाले राजनीतिज्ञों ने किंचित मात्र भी चिंता जताई कि कामुकता
परोसने वाले इन क्लबों के खुलने का भारतीय समाज पर क्या असर पड़ेगा?
पिछले तीन दशकों ने भारत में कामुकता एक उद्योग के रूप में स्थापित हो चुकी है
और महिलाएं इसमें माल के रूप में व्यापार के लिए इस्तेमाल हो रही हैं। कामुकता जब उद्योग की शक्ल ग्रहण
कर लेती है, तब इसका उपभोक्ता केवल समाज का अभिजात्य अग्रणी नहीं होता, उपभोक्ताओं
का विस्तार मध्यवर्ग और निचले वर्ग तक हो जाता है। ठीक उसी तरह, जैसे देश में पहले जब
गुटखे का उत्पादन शुरू हुआ तो वो बड़े पेक (डिब्बे) में मिलता था और उसके ग्राहक
समाज के संपन्न तबके से थे। एक दशक के बाद ही वह छोटे पेक याने पाउच में भी मिलाने लगा और उपभोक्ता समाज
का प्रत्येक तबका है| यही बात कामुकता के उद्योग पर भी लागू होती है| गुटखा उद्योग
समाज को गुटखे का आदी बनाता है। कामुकता का उद्योग समाज को कामुक बनाता है। आज यही होते हम देख रहे हैं। इस उद्योग में माल स्त्री है और वो
इसी का दुष्परिणाम भुगत रही है।
इस कामुक समाज का प्रत्येक अंग, व्यक्ति से
लेकर संस्था तक, राजनीति से लेकर धर्म तक, स्त्री से लेकर पुरुष तक, महिलाओं के
साथ छेड़छाड़ से लेकर बलात्कार तक की घटनाओं पर, दहेज से लेकर डायन/टोनही कहकर महिलाओं
को मार देने तक की घटनाओं पर, प्रेम निवेदन अस्वीकार कर देने से सम्मान के लिए
स्त्रियों को मार देने तक की घटनाओं पर, उसी कामुक नजरिये से सोचता है।
यही सोच पोलिस को लापरवाह बनाती है। यही
सोच 100 में से 70 बलात्कार के अपराधियों को न्यायालय से छुड़ाती है।
यही सोच बलात्कारियों को
लोकसभा और विधान सभाओं में पहुंचाती है।
इस विडम्बना के बावजूद कि यही समाज तब उद्वेलित नहीं
हुआ था, जब मणिपुर की मनोरमा, छत्तीसगढ़ की सोनी शोरेन, आसिया, नीलोफर या भंवरी देवी
के ऊपर अत्याचार हुए थे, इस बात का स्वागत किया जाना चाहिये कि कुछ हलचल तो समाज
में हुई है। पर, दुखद तो यह है कि इतना बड़ा
अवसर मिलने के बावजूद भी, समाज की चिंताएं, फांसी की सजा, नपुंसक बनाने और पोलिस
तथा न्यायायिक सुधार पर ही टिकी हैं। उन प्रदर्शनों
में न तो व्यवस्था जन्य दोषों पर कोई बल है, न ही समाज को सेक्स के चक्कर में
डालकर मूल सामाजिक समस्याओं की तरफ से भटकाने के प्रति कोई चिंता है| प्रधानमंत्री
का कहना है कि उस 23 वर्षीय लड़की की कुरबानी बेकार नहीं जायेगी।
उस लड़की के माता-पिता का कहना है कि उनकी बेटी की मौत से दिल्ली और देश
की महिलाओं की सुरक्षा को लेकर जागरूकता बढ़ेगी। देश
की बेटियों को हक और सम्मान मिलेगा। पर,
मिलेगा क्या?
देश का एक युवा क्रिकेटर लड़कियों को पटाने के
दो तरीके बता रहा है। एक परफ्यूम के विज्ञापन
में लड़के की फियान्सी कामुकता से प्रोत होकर लड़के के पिता के कपड़े उतार रही है।
योनी को गोरा बनाने से लेकर, योनी को कसा बनाने की क्रीम तक के
विज्ञापन बाजार में छाये हैं। नहीं
किसी के मुँह में जहर डाल के आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वो व्यक्ति उस जहर को
अमृत में बदल लेगा। इसी तरह समाज के दिमाग में
कामुकता भरकर आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह उसे सदवृति में बदल लेगा।
बुनियादी बात यह है कि समाज की संस्कृति, नैतिकता का वाहक समाज का अग्रणी
हिस्सा होता है। आज वही
भ्रष्ट है। वही कामुकता
में खो गया है। आप अपने
मालिक को प्लेब्वॉय क्लब तक ले जाने वाले ड्राईवर से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह
उसकी पहुँच में आ जाने वाली महिला को माल नहीं समझेगा।
विडम्बना यह है कि उस सोच के बारे में कहीं
नहीं सोचा गया जो कामुकता को समाज में रोप रही है, बलात्कार, स्त्रियों को माल
समझना, जिसके सहउत्पाद (bYPRODUCTBY PRODUCT) हैं। न इंडिया गेट पर, न लोकसभा में और न हमारे दिमागों में।
बिना उस पर विचार किये, विडंबनाओं से
भरे इस समाज में स्त्री सुरक्षा पर रोना कितना फलीभूत होगा, यह तो भविष्य ही
बताएगा।
अरुण कान्त शुक्ला
31/12/2012
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