Tuesday, December 30, 2014

सत्ताएं सिर्फ दमन और शक्ति नहीं, बौद्धिक चालाकी और काईयांपन को भी एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं..रायपुर हिन्दी साहित्य महोत्सव 2014




अब इस बात पर संदेह करने की कोई गुंजाईश नहीं रही है कि जिस उद्देश्य से छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार ने हिन्दी साहित्य महोत्सव 2014 का आयोजन किया था, उस उद्देश्य को प्राप्त करने में वह सफल रही है| पहले सोशल मीडिया में और अब प्रिंट मीडिया में महोत्सव में शामिल हुए और नहीं शामिल हुए साहित्यकारों के बीच में मची घमासान इस बात का प्रमाण है कि भाजपा/संघ की विभाजन करो और विभाजन के माध्यम से अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करो की नीति समाज के अन्य तबकों के साथ साथ साहित्य जगत को भी तोड़ने और ध्रुवीकृत करने में सफल रही है|

साहित्य उत्सव के दौरान ही डबराल साहब की टिप्पणी को सभी संदर्भों से काटकर छत्तीसगढ़ में उछाला गया और जितनी अभद्र भाषा से उनका सत्कार किया जा सकता था, किया गया| जाहिर है ऐसा करने वाले वे ही थे, जो सत्ता संगठन से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जुड़े हुए थे| तुरंत बाद सोशल मीडिया पर जो पहला खुला प्रशंसा वक्तव्य मुझे दिखाई दिया, वह भाई राजीव (बस्तर वाले) का था, जिस पर उनके साथ मतान्तर टिप्पणियों का भी आदान प्रदान हुआ| इस विषय पर मैंने स्वयं एक आलेखजिन रायपुर हिन्दी साहित्य महोत्सव नईं वेख्या’ लिखा| उसके बाद तो वीरेन्द्र यादव, मनोज कुलकर्णी, नरेश सक्सेना, जगदीश्वर चतुर्वेदी और मानो पक्ष विपक्ष में तर्क-वितर्क की  बाढ़ सी आ गयी| लेखों की भाषा और अभिव्यक्ति के अंदाज में भी वह सब आ गया, जिससे शायद किसी भी सैद्धांतिक बहस में साहित्यकार जैसे प्रबुद्ध जीवों को दूर रहना चाहिये था| जलेस के बयान को लेकर यदि जगदीश्वर तिलमिलाए तो वीरेन्द्र यादव की टिप्पणी ने नरेश जी को क्रोधित होने का अवसर दिया| पर, क्रोध और रंज के बावजूद उन्होंने अपने आलेख ‘नकली क्रांति मुद्राओं की अश्लील प्रदर्शन’ में तीन विकल्प बताये और उनमें से तीसरा उन्होंने चुना|

वे तीन विकल्प थे, ‘पहला यह कि अखिल भारतीय स्तर पर हम सब तय करते कि रायपुर कोई नहीं जाएगा; लेकिन न तो प्रगतिशील लेखक संघ ने राष्ट्रीय स्तर पर विरोध का निर्णय किया, न छत्तीसगढ़ प्रलेस ने बहिष्कार की घोषणा की। दूसरा, रायपुर में उन्हीं तारीखों में एक समांतर मंच खड़ा करके सभी रचनाकारों और जनता का आह्वान किया जाता कि वे कहीं और न जाकर हमारे मंच पर आएं और विरोध दर्ज करें। यह भी नहीं किया गया। तीसरा, और अंतिम विकल्प यह था कि हम सरकारी मंच पर जाते और प्रभावशाली ढंग से हिंदुत्ववाद, सांप्रदायिकता और पूंजीवादी नीतियों के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करते और अपने पक्ष में जनमत तैयार करते। यही हमने किया और पूरी ताकत से अभूतपूर्व सफलता के साथ किया।‘ माननीय साहित्यकार जिस तीसरे विकल्प को चुनने के बाद, उसे अभूतपूर्व सफलता के साथ पूरा किया बता रहे हैं, वह कितना अभूतपूर्व था, यह तो वही बता सकता है, जिसने अपना पंडाल और अपने प्रदर्शन से बाहर महोत्सव में घाट रहा सब कुछ देखा हो|

संघ और भाजपा से जुडी ताकतें , साहित्य महोत्सव के नाम पर क्या कर रही थी, ये आपको उन पंडालों में जाकर देखना चाहिए था, जहां राज्य सरकार के पूर्व और वर्त्तमान अधिकारी वर्चस्व जमा कर बैठे थे, और भाजपा/संघ के एजेंडे को बढ़ा रहे थे| फासीवादी ताकतों के लिए ऐसे सम्मलेन/उत्सव प्रेशर कुकर की तरह हैं, जहां एक तरफ वे अपने विरोधियों को अपनी भड़ास निकालने का अवसर देते हैं तो दूसरी ओर अपनी ढकोसलेबाजी से अपने कुत्सित इरादों को छुपाते हैं, और वैसा ही इस्तेमाल उन्होंने साहित्य महोत्सव का किया है|

अनेक बार ऐसे अवसर उपस्थित होते हैं, जब निर्णय किसी संगठन को नहीं बल्कि संगठन के निर्णय के अभाव में व्यक्ति को लेना पड़ता है| फिर तर्क तो किसी भी पक्ष में ठोस तरीके से दिए जा सकते हैं| आखिर फर्स्ट इंटरनेश्नल के टूटने से लेकर पेरोस्त्रईका-ग्लास्नोस्त के द्वारा सोवियत संघ के टूटने तक शामिल सभी महानुभावों के पास भी तर्क तो थे  ही और जनता का एक बड़ा भाग भी उनके साथ हो गया था, जैसा कि अभी है, हिन्दुत्ववादियों के साथ|

जहां तक वहां उपस्थित जनता का सवाल है, उसका 50% हिस्सा कोटा देकर जिलों से बुलाया गया था| इसीलिये, पहले दिन भोजन प्रबंध को लेकर बहुत गड़बड़ी हुई थी, जिसे दूसरे दिन से कूपन सिस्टम से संभालने की कोशिश हुई| साहित्य समाज से जुड़े समझने और सुनने के जिज्ञासु वहां बमुश्किल 20% रहे होंगे| शेष घूमने आये थे| जो युवा और विद्यार्थियों वहां दिख रहे थे, वे भी ढो कर  लाये गए थे|

यह सच है कि पूरा वाम आन्दोलन अभी दबाव में है और पहले दो विकल्प में से एक भी छत्तीसगढ़ में अमल में नहीं लाया जा सकता था| सच तो यह भी है कि आज छत्तीसगढ़ का भी प्रगतिशील सृजन से जुड़ा रचना-जगत इसे  नहीं समझ पाने के कारण भौंचक्का और असहज अनुभव कर रहा है और कर रहा होगा| कितना अच्छा होता कि इतने गंभीर विषय को  व्यक्तिगत न लेकर, इस पूरे मामले को सैद्धांतिक मानकर सभी  सोचते| क्या हम नहीं देख रहे कि साहित्य के स्रोत स्थल ज्ञान/शिक्षा को ही आज भ्रष्ट और प्रदूषित करने की पुरजोर कोशिश हो रही है? क्या संघ के कार्यवाहक मोहन भागवत के इस कथन में गूढ़ रहस्य नहीं छिपा है कि इस जवानी के जाने के पहले वे भारत को हिन्दू राष्ट्र बना देंगे? जवानी के जाने के पहले का मतलब क्या है? वे पीढ़ी के ज्ञान को ही उलट देना चाहते हैं| वे आने वाली पीढ़ी के सामने एक दकियानूसी और अशिक्षित शिक्षित पीढ़ी देखना चाहते हैं ताकि आगे का काम अपने आप होता रहे|

अंत में मैं अपने पुराने लेख की ही पंक्तियाँ ही दोहराना चाहूंगा कि जिन्हें आज ऐसा लग रहा है कि वैचारिक मतभेदों को भूलकर और बहुमत के अल्पमत पर दबाव के बिना अभिव्यक्तियां इस कार्यक्रम के जरिये प्रारंभ हुई  हैं और यह एक अच्छी बात है, उन्हें ऐसा अच्छा कितना भी क्यों न लगे, पर  उन्हें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सत्ताएं सिर्फ दमन और शक्ति का ही प्रयोग नहीं करती , वे बौद्धिक चालाकी और काईयांपन को भी एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं, जिससे उनका खेल चलता रहे...यह हिन्दी साहित्य महोत्सव उसी प्रकार की  चालाकी है|

अरुण कान्त शुक्ला
29 दिसंबर, 2014

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