Wednesday, December 23, 2015

वकील साहब आपको किकेट के कीचड़ में कौन सा कमल दिख रहा था, जिसे तोड़ने आप कीचड़ में उतरे?

केजरीवाल हो या कीर्ति उन्होंने जेटली पर पैसा लेने का आरोप लगाया भी नहीं है..एक भी पैसा तो मनमोहनसिंह ने भी नहीं लिया था | सवाल तो अंधत्व का है याने अंधा बांटे रेवड़ी अंधों को बीन बीन..| यह काम याने 'अंधों को बीन बीन' तो मनमोहन ने भी नहीं किया था | सबसे बड़ा सवाल यह है कि वकील साहब आपको किकेट के कीचड़ में कौन सा कमल दिख रहा था, जिसे तोड़ने आप कीचड़ में उतरे? क्रिकेट से जुड़ा हर व्यक्ति प्रबंधक, मीडिया, क्रिकेटसंघ, खिलाड़ी, निकृष्ट दर्जे के भ्रष्ट होते हैं हर तरह से ..बहुआयामी भ्रष्ट..आप कैसे इमानदार हो सकते हैं..? अब तो गिल साहब ने भी मोर्चा खोल दिया है| किस किस को अदालत में घसीटेंगे? अपनी गोल गोल आँखों को गोल गोल घुमाते हुए, हिन्दी को अंगरेजी स्टाईल में हर शब्द को चबा चबा कर बोलते हुए आप ही तो बमुश्किल डेढ़ बरस पहले हमें बताया करते थे कि भ्रष्टाचार का मतलब केवल खुद खाना नहीं है बल्कि खाने वालों की तरफ से धृतराष्ट्र बन जाना भी भ्रष्टाचार ही है| अब खुद को पाक साफ बताना किस मुंह से? वैसे मोदी जी की सलाह मन लीजीये और इस्तीफा देकर पूरी तरह अदालत में भिड़ जाईये, आपको ऐसे मामले जीतने का खासा अनुभव है और पाक-साफ़ होकर लौटियेगा, आडवानी जी की तरह, जिनको आपने कौने में बिठा दिया है| वैसे अदालत से साफ़ घोषित होने के बाद भी आप साफ़ रहेंगे, पाक तो हम नहीं मानेंगे| आपको क्या क्रिकेट से जुड़े किसी भी व्यक्ति को हम पाक नहीं मानते| राजनीतिज्ञ हो तो राजनीति करो| ये क्या, राजनीति भी करेंगे, क्रिकेट भी करेंगे, हॉकी भी करेंगे, वकालत भी करेंगे, क्यों? एक सरकारी कर्मचारी तो बिचारा आपसे कितना कम पाता है पर दूसरा काम नहीं कर सकता, और राजनेता सब जगह मुंह मारेंगे| मैं बताऊं, यही भ्रष्टाचार है| जहां तक बेईमानी का सवाल है, अनेक बार बेईमानी अदालतों में क्या कहीं भी साबित नहीं हो सकती पर इसका मतलब ईमानदार होना नहीं है| वैसे भी आपने आज तक कौन सा जनता के फायदे का मुकदमा लड़ा और जीता है| भ्रष्ट कंपनियों. गलत लोगों को बचाकर ही लोग बड़े वकील बनते हैं| यह उस ज्ञान का दुरुपयोग है जो वकील जनता के पैसे से प्राप्त करता है| गिरेबां में झांकेंगे तो आपका अपना दिल स्वयं को गलत हो..गलत हो..बोलेगा| वैसे भी आदमी को खुद के बचाव के लिए दूसरे को दोषी बोलना पड़े तो समझ लेना चाहिए कि उसकी पोल खुल गयी है|

अरुण कान्त शुक्ला
23/12/2015


Friday, October 23, 2015

प्रधानमंत्री केन्द्रीय विदेश राज्य मंत्री व्ही के सिंह को तुरंत बर्खास्त करें-

      प्रदेश के साहित्यकारों और सामाजिक कार्यों से जुड़े लोगों ने की मांग-

प्रदेश के साहित्य और सामाजिक कार्यों से जुड़े 19 से अधिक लोगों ने केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री व्ही के सिंह के गुरूवार को दिए गए उस बयान की घोर भर्त्सना की है, जिसमें केंद्रीय राज्यमंत्री ने हरियाणा के सुनपेड़ गाँव में दलितों को ज़िंदा जलाने की घटना का हवाला देते हुए दलितों की ह्त्या की तुलना कुत्तों को पत्थर मारने से की है| ज्ञातव्य है कि सुनपेड़ में दलितों के एक पूरे परिवार को ज़िंदा जलाकर मारने की साजिश भरी कोशिश में दलित परिवार के दो मासूम बच्चे ज़िंदा जल गए थे| इस घटना ने जहां पूरे देश के बुद्धिजीवियों तथा विचारशील लोगों के मानस को झकझोरा तो दूसरी ओर केंद्रीय राज्यमंत्री ने यह कहकर कि कोई कहीं कुत्ते को पत्थर मारे तो सरकार जिम्मेदार नहीं हो सकती है, देश के बुद्धिजीवियों, संवेदनशील लोगों तथा पूरे दलित समुदाय के लोगों की भावनाओं और संवेदनाओं पर कठोर आघात किया है| सर्व/श्री प्रभाकर चौबे, ललित सुरजन, एडवोकेट एम बी चौरपगार, नथमल शर्मा, वेदप्रकाश, विनोद शंकर शुक्ल, तेजिंदर गगन, लोकबाबू, सत्यभामा अवस्थी, एडवोकेट निरुपमा बाजपेई, संजय शर्मा(शाम), संतोष ढांढी, अरुण कान्त शुक्ला, जीवेश प्रभाकर, डी के चटर्जी, उमाप्रकाश ओझा, रियाज़ अम्बर, बी रविकुमार, तेजिंदर सिंह जग्गी ने बयान जारी करते हुए प्रधानमंत्री से मांग की है कि ऐसी सामंती सोच रखने वाले मंत्री को प्रधानमंत्री केन्द्रिय मंत्रीमंडल से तुरंत बर्खास्त करें| सभी ने विदेश राज्यमंत्री के इस कथन की भी घोर निंदा की है, जिसमें राज्यमंत्री ने पत्रकारों द्वारा मामले की रिपोर्टिंग करने पर नाराजी जताते हुए पत्रकारों को आगरा में भरती होने के लिए कहा है| प्रदेश के इन जाने माने वरिष्ठ साहित्यकारों और सामाजिक कार्यों से जुड़े लोगों ने कहा है कि एक केंद्रीय मंत्री का इस तरह का बयान और कथन देश की प्रतिष्ठता  और स्वाभिमान पर तमाचा है, इसके लिए प्रधानमंत्री को देश से माफी मांगना चाहिए|
                                                   
   रायपुर: 23 अक्टोबर, 2015                 अरुण कान्त शुक्ला

                                 (उपरोक्त उल्लेखित व्यक्तियों की ओर से) 

Monday, August 31, 2015

मेहनतकश का जबाब है 2 सितम्बर की हड़ताल





    
 
सत्ता संभालने के साथ ही श्रम सुधारों को लागू करने की जो कवायद, हड़बड़ी एनडीए की सरकार ने दिखाई, उसकी हिम्मत तो सुधारों के पितामह मनमोहनसिंह भी नहीं कर पाए थे| सरकार बनने के दो महीने बाद ही, 30 जुलाई को मोदी कैबिनेट ने फ़ैक्ट्रीज़ एक्ट 1948, अप्रेंटिसेज़ एक्ट 1961 और लेबर लॉज़ एक्ट 1988 जैसे श्रम क़ानूनों में कुल 54 संशोधन पास किए| यह सर्वविदित और स्थापित सत्य है कि मजदूरों के अधिकारों और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए जितने भी क़ानून/कायदे गुलाम/आजाद भारत में बनाये गए, उनका पूरा क्या आंशिक लाभ भी देश के मेहनतकश के अधिकाँश हिस्से को नहीं मिला| इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तो सार्वजनिक/सरकारी क्षेत्र के उद्योगों से लेकर निजी क्षेत्र के उद्योगों में ठेके/आकस्मिक आधार पर रखे गए मजदूरों और कर्मचारियों की लगातार बढ़ती संख्या ही है| जहां न छुट्टियां हैं, न भविष्यनिधी है, न स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, नौकरी की गारंटी तो है ही नहीं|  

संगठित क्षेत्र के कुछ मजदूर/कर्मचारी अवश्य उन कानूनों को अपनी संगठित शक्ति के अनुसार अपनी ओर मोड़ने में सफल हुए, पर अधिकाँश समय उन्हें भी कोर्ट/कचहरी के चक्कर लगाते रहना पड़ा और अधिकाँश मामलों में ऐसे सभी कानूनों को बदल दिया गया, जिनसे वे लाभ प्राप्त करने के योग्य हुए थे| पर, एक साथ इतना बड़ा आक्रमण भारत के मेहनतकश समुदाय के उपर कभी नहीं हुआ, जो दो दशक के बाद बहुमत से चुनी गयी एनडीए की सरकार ने किया है| यही कारण है कि स्वयं को देश का सबसे बड़ा मजदूर बताने वाले प्रधानमंत्री आज देश के मेहनतकश के निशाने पर हैं| यहाँ तक कि जब 26 मई को दिल्ली में हुए कामगारों के राष्ट्रीय सम्मलेन में देश की 11 केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों और बैक, बीमा, केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, रेलवे, रक्षा, टेलीकॉम और अन्य संस्थानों के कर्मचारियों के संगठनों ने 2 सितम्बर की हड़ताल का निर्णय लिया तो उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से संबद्ध केन्द्रीय युनियन भारतीय मजदूर संघ भी भी शामिल थी| राष्ट्रीय सम्मलेन के तुरंत बाद पत्रकारों के सवालों के जबाब में भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस) के उपाध्यक्ष वृजेश उपाध्याय ने कहा था कि  ''पूर्व की सरकारों की नीति को ही मोदी सरकार ने आगे बढ़ाया है और हम इसकी हर तरह से मुख़ालफ़त करेंगे|” इतना ही नहीं वृजेश उपाध्याय ने सम्मलेन को संबोधित भी किया था| आज भले ही सरकार और संघ के दबाव में बीएमएस ने स्वयं को हड़ताल से अलग कर लिया हो, पर यह निश्चित है कि मोदी सरकार के श्रम सुधारों के जहर को बीएमएस उससे जुड़े मजदूरों के गले तो नहीं ही उतार पायेगी और वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 2 सितम्बर की हड़ताल के समर्थन में ही रहेंगे|

46वें श्रम सम्मलेन के उदघाटन भाषण में प्रधानमंत्री ने मालिक-मजदूरों के बीच परिवार भाव पैदा करने की बात करते हुए कहा था “....एक श्रमिक का दुःख मालिक को रात को बैचेन बना देता हो, और फेक्ट्री का कोई नुकसान श्रमिक को रात को सोने न देता हो, यह परिवार भाव जब पैदा होता है तब विकास की यात्रा को कोई रोक नहीं सकता|” पर, उन्होंने स्वयं अपनी सरकार की पारी की शुरुवात परिवार भाव से नहीं करके श्रमिकों पर हमले के साथ की थी| सरकार जिन तीन श्रम कानूनों को पारित कराना चाहती थी, उनमें से 2 को वह शीतकालीन सत्र में पारित करवा चुकी है, वे हैं फेक्ट्रीज़ संशोधन बिल 2014 और अपरेंटिसेज़ संशोधन बिल 2014| फेक्ट्रीज़ संशोधन बिल 2014 के अनुसार फ़ैक्ट्रियों में कर्मचारियों की संख्या को बढ़ाने का पूरा अधिकार राज्यों को दिया गया है| इससे पहले यह अधिकार केंद्र के पास था|  काम के घंटे को नौ से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया गया है| पहले काम की अवधि आठ घंटे थी और एक घंटा का ब्रेक था| अब कंपनियां 12 घंटे में सुविधानुसार आठ घंटे काम ले सकेंगी|  ओवरटाइम को बढ़ा कर प्रति तिमाही 100 घंटे कर दिया गया है| कुछ मामलों में इसे 125 घंटे तक बढ़ा दिया गया है| पहले यह अधिकतम 50 घंटे था|  औद्योगिक विवाद मामले में केस दर्ज करने का अधिकार राज्य सरकार को दे दिया गया है| पहले यह अधिकार लेबर इंस्पेक्टर के पास था|

अपरेंटिसेज़ संशोधन बिल 2014 के अनुसार, कारखानों में अधिक से अधिक प्रशिक्षु श्रमिक रखे जा सकेंगे जिन्हें न्यूनतम वेतन से 30 प्रतिशत कम वेतन मिलेगा और तमाम श्रम क़ानूनों के दायरे में वे नहीं आएंगे|  हालांकि, सरकार का (हास्यास्पद) तर्क है कि इससे ग़ैर इंजीनियरिंग क्षेत्र के स्नातकों और डिप्लोमा होल्डरों के लिए उद्योगों में नौकरी की संभावनाएं खुल जाएंगी| कंपनियां पहले की अपेक्षा अधिक से अधिक प्रशिक्षु कर्मचारी रख सकेंगी| पहले वे कुछ निश्चित प्रतिशत में ही प्रशिक्षु कर्मचारी रख सकती थीं|  प्रशिक्षण कार्यक्रमों को पूरी तरह आउटसोर्स करने की अनुमति दी गई है| पहले यह फ़ैक्ट्री की ज़िम्मेदारी थी|  प्रशिक्षु रखने के लिए पांच सौ नए ट्रेड को खोल दिए गए हैं|  प्रशिक्षु कर्मचारियों को दिए जाने वाले स्टाइपेंड का पचास प्रतिशत हिस्सा सरकार देगी, जबकि पहले पूरी ज़िम्मेदारी फ़ैक्ट्री की थी|

वर्तमान में सरकार का मंथन वेतन अधिनियम को संशोधित करने पर चल रहा है| यदि यह भी संसद से पारित होता है तो न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, सामान वेतन अधिनियम 1976, वेतन भुगतान क़ानून 1936, बोनस एक्ट 1965 में ऐसे बदलाव सामने आयेंगे, जो एक ही उद्योग में एक समान कार्य करने वालों के बीच भी भेदभाव पैदा करेंगे| न्यूनतम वेतन तय करने का अधिकार राज्य के पास चला जाएगा| श्रम मामलों के इतिहासकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर प्रभु महापात्रा के अनुसार यदि ये बिल पास होते हैं तो हायर एंड फॉयरकी नीति क़ानूनी हो जाएगी और महिलाओं से नाइट शिफ्ट में भी काम लिया जा सकेगा|''

आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार भी वही कर रही है, जो देश का श्रमिक नवउदारवाद के पिछले 25 वर्षों में देखता आया है| भारत निर्माण, चमकता भारत, विकास पथ पर अग्रसित भारत, ढांचागत सुधार, रोजगार मिलेगा, विदेशी निवेश लाना है, जैसे नारों/वायदों की आड़ में श्रमिक/श्रम के उपर हमले और मालिकों को रियायतें, लूट की छूट, तभी तो इस बजट में पूंजीपति घरानों को 5 लाख करोड़ रूपये की भारी छूट दी गयी है और जान न्यौछावर करने वाले सेना के जवान जंतर-मंतर पर बैठे हैं| 2 सितम्बर की हड़ताल मेहनतकश के उपर सरकार के हमलों का जबाब है|

अरुण कान्त शुक्ला , 1 सितम्बर, 2015        


Tuesday, August 25, 2015

कब हो ही सोनहा बिहान ..


जब मुझे पता चला कि राज्य शासन के जनसम्पर्क विभाग ने रायपुर के टाउन हाल में एक छाया चित्र प्रदर्शनी ‘सोनहा बिहान’ आयोजित की है और स्वतंत्रता दिवस की संध्या मुख्यमंत्री इसका शुभारंभ करेंगे तो यकायक मुझे तीन साढ़े तीन दशक पूर्व के लोककला मंच सोनहा बिहान और कारी का स्मरण हो आया| मूलत: नाट्य मंच किन्तु गीत संगीत से सरोबार “सोनहा बिहान” तथा ‘कारी’ छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरती पर डा. नरेंद्र देव वर्मा, दाऊ महासिंह चन्द्राकर तथा रामचन्द्र देशमुख की देन थे, जिनसे इस धरती को अनेक लब्ध प्रतिष्ठित कलाकार प्राप्त हुए| ‘सोनहा बिहान’ में दाऊ मुरली चंद्राकर जी के द्वारा लिखे गीतों ने अपने ज़माने में काफी धूम मचाई है| लोक कला मंच होने के बावजूद ‘सोनहा बिहान’ की प्रस्तुतियों और गीतों में छत्तीसगढ़ के ग्राम्य अंचल के लोगों की व्यथा-कथा असाधारण रूप से झलकती थी| जब मैंने अपने मित्र टीकाराम वर्मा से जनसम्पर्क विभाग की इस छाया-चित्र प्रदर्शनी के उदघाटन समारोह में साथ चलने कहा तो उन्होंने तुरंत अपने मोबाईल में लोड दाऊ मुरली चंद्राकर का गीत सुनाया| गीत का एक पद ही आपको ‘सोनहा बिहान’ से परिचित करा देगा;














गाँव सुखी तब देश सुखी हे
बात बात में लोग दुखी हे
कतको कमाथन पुर नई आवे
जांगर थकगे मन दुबरावे
सुख दुःख में मिल उठ बैठनले के हमर निशान 

जांगर टांठ करे बर परहीतब हो ही सोनहा बिहान

खैर, ‘सोनहा बिहान’ के बारे में अनावश्यक रूप से मष्तिष्क में एक कल्पना लेकर हम दोनों टाऊन हाल पहुंचे| चूंकि, उदघाटन के लिए मुख्यमंत्री को आना था, आवश्यक खाना तलाशी के बाद हाल में पहुँचते ही पहला ध्यान सामने फ्लेक्स शीट पर बनाए गए पोस्टर ‘मन की बात’ पर गया और दिमाग में पहला ख्याल ही यह आया कि यह छाया चित्र प्रदर्शनी नहीं, पोस्टर प्रदर्शनी है, जिसमें छाया चित्रों को कंप्यूटर की सहायता से फ्लेक्स शीट पर उतारा गया है| उसी पोस्टर ने यह भी जता दिया कि पूरे आयोजन का कला नामक शब्द से कोई वास्ता नहीं है| अपने स्वागत भाषण में जनसंपर्क विभाग के सचिव और आयुक्त ने यह भी बता दिया कि इन पोस्टर्स में पहली बार विभाग ने एलईडी बेक लाईट का प्रयोग किया है, जिससे पोस्टर्स के रंग और उभर कर आते हैं| यदि, आप कुछ देर के लिए पोस्टर्स की विषयवस्तु एक तरफ कर दें तो आजकल इस एलईडी बेक लाईट का प्रयोग करते हुए और भी भव्य और सुन्दर पोस्टर्स मॉल तथा मॉल के सिनेकाम्पलेक्स में नजर आते हैं|

छाया चित्रांकन की यदि बात की जाए तो आज भी डिजिटल कैमरे के माध्यम से बहुत ही संवेदनशील और खूबसूरत फोटोग्राफी की जा रही है| पर, अब उस छायांकन को और भी बड़ा  रूप डिजिटल प्रिंटिंग के द्वारा दिया जा सकता है| पर, तब उसकी मूल कला नष्ट हो जाती है| छायाकार की फोटो की खूबसूरती कैमरे से ज्यादा उसके विषयवस्तु के चयन और उन कोणों पर निर्भर होती है, जिनका इस्तेमाल छायाकार करता है|  फ्लेक्स शीट जो पोली विनायल क्लोराईड (PVC) या पोलीथिन (PE) की होती है, पर किसी भी विषय को छाया चित्रों सहित चार तयशुदा रंगों या उनके संयुक्त संयोजन से डिजिटल प्रिंटिंग के द्वारा छापा जा सकता है| अधिकतर इस पद्धति का उपयोग सड़क के किनारे लगने वाले विज्ञापनों (होर्डिंग्स), पाताकाओं (बेनर) या प्रचार पोस्टर्स बनाने के लिए किया जाता है| इसका ग्राफिक्स का एक कोर्स होता है और यह स्वरोजगार का साधन हो सकता है| यह और अलग बात है कि आज इस काम को करने वाले भी काम के अभाव में बेरोजगार जैसे ही घूम रहे हैं, क्योंकि, यह व्यवसाय अब पूरी तरह बड़े प्रिंटर्स के कब्जे में चला गया है| हर विकास के साथ जैसी कहानी जुडी रहती है, फ्लेक्स प्रिंटिंग के साथ भी है, इस पद्धति ने कई लोगों को आधुनिक रोजगार दिया तो सैकड़ों हाथ से पोस्टर्स, बेनर बनाने वाले पेशेवर लोगों का रोजगार छीना भी है|      

बहरहाल, जनसंपर्क विभाग की इस ‘सोनहा बिहान’ छाया चित्र प्रदर्शनी में सोनहा बिहान शब्द का इस्तेमाल कला के लिए नहीं राजनीतिक शब्दावली में किया गया था| जैसा कि स्वयं मुख्यमंत्री ने उदघाटन करते हुए कहा भी कि यह फोटो प्रदर्शनी  सोने की तरह दमकते और विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़ की उज्जवल छवि प्रस्तुत करती है| प्रदर्शनी में भूतपूर्व राष्ट्रपति मिसाईल मेन अब्दुल कलाम तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री के रूप में पहली  छत्तीसगढ़ यात्रा के चित्रों और उद्धरणों को तथा राज्य सरकार की विकास योजनाओं को पोस्टर्स के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है| यह सामयिक भी था, कुछ दिन पूर्व ही पूर्व राष्ट्रपति का निधन हुआ था और कुछ समय पूर्व ही केंद्र में मोदी सरकार ने एक वर्ष पूर्ण किया था|  पिछले दो दशकों से भारत की राजनीति एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जिसमें कर्म, सेवा, तथा शोषितों के उत्थान के लिए अदम्य भावना के स्थान पर आत्मकेंद्रित आत्मतुष्टता तथा आत्म मुग्धता की राजनीति को केन्द्रीय स्थान प्राप्त है| यह प्रदर्शनी भी इस भाव से अछूती नहीं थी| मन की बात पोस्टर में स्कूल के बच्चों के साथ प्रधानमंत्री की तस्वीर हो या सुशासन के साथ राज्य के मुख्यमंत्री का पोस्टर, खेती किसानी में आगे बढ़ता छत्तीसगढ़ का पोस्टर हो या स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ आधुनिक चिकित्सा शिक्षा के विस्तार का पोस्टर, या महिला सशक्तिकरण से सशक्त होते समाज का पोस्टर हो, सभी आपको आभास कराते हैं कि सब कुछ बढ़िया है और बेहतर है| आप भूल जाईये कि सुदूर बस्तर में सैकड़ों स्कूल रोज नहीं खुलते, कि स्कूल भवनों में सीआरपीएफ़ और बीएसएफ के जवान रुकते हैं , इसलिए माओवादी उन स्कूलों को ध्वस्त कर चुके हैं| आप किससे पूछेंगे कि क्यों प्रदेश में 86% बेटियाँ ऐसी हैं जो पढ़ाई को बीच में ही छोड़ चुकी हैं| आपका यह सवाल आपके मन में ही रहेगा कि बढ़ती स्वास्थ्य सुविधाएं किसे कहें? स्मार्ट कार्ड से पैसा कमाने के लिए जबरिया गर्भाशय निकालने को, नसबंदी शिविरों में लापरवाही से हुई मौतों को, या मोतियाबिंद के आपरेशन में अंधे होने वाले मामलों को या निजी अस्पतालों में हो रही लूट और धांधली को? महिला सशक्तिकरण के पोस्टर देखते हुए आपको यह कोई नहीं बताएगा कि आज भी प्रदेश की 52% महिलाओं का प्रसव अस्पताल में नहीं होता है| सुशासन, वह तो रोज आप चेन खींचने, ठगी करने, हत्याओं के रूप में देखते हैं| भारत में ट्रेन के अपहरण की अकेली घटना हमारे प्रदेश में हुई है| मीना खालको या अन्य ढेरों के बलात्कार और मार दिए जाने की बात आप अपने मन में रखिये|


स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उन्होंने आपको आमंत्रित किया है, उनके मन की बात देखने के लिए, वही सोनहा बिहान है! पर, हमारे टीकाराम जी कहाँ मानने वाले थे, बाहर निकले और प्रवेश द्वार पर सजाकर लिखे गए “सोनहा बिहान’ को देखा और फिर मुझसे बोले, तेंहा मौला एक बात बता, कब हो ही सोनहा बिहान? मैंने उनकी तरफ देखा और गुनगुना दिया;

जांगर टांठ करे बर परही, तब हो ही सोनहा बिहान

अरुण कान्त शुक्ला

21 अगस्त 2015 

Thursday, July 23, 2015

क्या देश के मेहनतकशों को 19वीं शताब्दी के बर्बर दिनों में पहुंचाने की तैय्यारी है?



क्या देश के मेहनतकशों को 19वीं शताब्दी के बर्बर दिनों में पहुंचाने की तैय्यारी है?

20 जुलाई को 46वें श्रम सम्मलेन का उदघाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने जो भाषण दिया, वह देश के मेहनतकशों को निराश करने वाला नहीं बल्कि यह अहसास कराने वाला था कि उनकी सरकार देश में एक ऐसा श्रम माहौल बनाने के लिए प्रतिबद्ध है जो देश के मेहनतकश समुदाय को 19वीं शताब्दी के उस बर्बर माहौल में धकेल देगा, जब कारखाने पूंजी के बूचड़खाने थे और मजदूरों का विदेशी,देशी पूंजीपति, निर्दयतापूर्वक शोषण करते थे| जब औद्योगिक क्षेत्र में कोई क़ानून नहीं चलता था| जब जंगल क़ानून, असीमित काम के घंटे, बिना किसी रोकथाम के आदमियों, औरतों, बच्चों के शोषण का दौर था| आज अगर श्रम सम्मलेन के मंच का इस्तेमाल करके और स्कूली बच्चों और उद्योगों के प्रतिनिधियों से ताली बजवाकर प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि “मैं नहीं मानता हूँ कि सिर्फ कानूनों के द्वारा बन्धनों को लगाते लगाते समस्याओं का समाधान कर पायेंगे” तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन कानूनों को वह आज उद्योगपतियों पर बंधन मान रहे हैं, उनमें से प्रत्येक क़ानून दुनिया के मेहनतकश के साथ साथ भारत के मजदूरों ने भी सरकारों से उद्योगपतियों, मालिकों और उनके साथ मिले हुए धार्मिक पाखंडियों के अत्याचारों और शोषण के खिलाफ कुरबानी देकर हासिल किये हैं और कुरबानी देने का यह सिलसिला आज भी जारी है| भारत और विदेश की कारपोरेट बिरादरी की सहायता और मेहरबानी से चुनावों में मिली सफलता का प्रतिदाय निश्चित ही उन्हें भारत के किसानों और मेहनतकशों से धन-अधिकार दोनों छीनकर कारपोरेटों के हवाले करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए मजबूर करेगा पर उन्हें यह याद रखना होगा कि उनके इस कार्य से देश का विकास नहीं विनाश ही होगा, जैसा कि उन्होंने स्वयं ही कहा है “अगर श्रमिक रहेगा दुखी, तो देश कैसे होगा सुखी”| और क्या भारत का मेहनतकश यह आसानी से हो जाने देगा? नहीं,    देश के मेहनतकश अपने अधिकारों को बचाने के लिए फिर कुरबानियां देंगे, जैसे कि उन्होंने उन अधिकारों को प्राप्त करने के लिए दी थीं|

प्रधानमंत्री को अब देश की जनता को भावनात्मक रूप से मूर्ख बनाने की कोशिश छोड़ देनी चाहिए-
 
2014 के लोकसभा के दौरान और उसके बाद से देखा जा रहा है कि प्रधानमंत्री का लगातार प्रयास देश के लोगों को भावनात्मक रूप से दोहने का रहता है और इसके लिए वो बरसों से चले आ रहे मिथकों को अपनी वाक्-पटुता के जरिये तोड़-मोड़ कर इस्तेमाल करते रहते हैं| 46वें सम्मलेन के अपने भाषण की शुरुवात में ही उन्होंने कहा कि “चाहे वो किसान हो मजदूर हो, वो unorganized  लेबर का हिस्सा हो, और हमारे यहाँ तो सदियों से इन सबको एक शब्द से जाना जाता है-विश्वकर्मा” और चूंकि इन्हें “विश्वकर्मा के रूप में जाना जाता है, माना जाता है और इसीलिये अगर श्रमिक रहेगा दुखी, तो देश कैसे होगा सुखी?” यह देश के किसानों, मजदूरों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का भावनात्मक शोषण के अलावा कुछ नहीं है| प्रधानमंत्री के अलावा सभी जानते हैं कि देश के किसान, मजदूर (संगठित और असंगठित दोनों) विश्वकर्मा समुदाय में नहीं आते हैं| भारत के मेहनतकश समुदाय में सभी जाती और सभी धर्मों के लोग शामिल हैं और वे सब विश्वकर्मा कैसे हो सकते हैं?

विश्वकर्मा, अभियांत्रिकी, कला या शिल्प का व्यवसाय करने वाले लोगों का सम्प्रदाय या जाती है जो विश्वकर्मा देवता के अनुयायी हैं| ये भारत में सभी जगह फैले हैं और मुख्यत: लोहार, बढ़ई, सोना या अन्य धातुओं तथा पत्थर पर काम करने वाले लोग इस सम्प्रदाय में आते हैं| मध्य युग से ही यह माना जाता है कि यह सम्प्रदाय ब्राम्हण समाज से निकला अथवा उससे थोड़ा ही नीचे है, इन्हें हिंदु धर्म के नियमों के अनुसार जनेऊ धारण करने और ब्राम्हणों के समान ही अन्य पूजा पाठ करने की अनुमति है, जिससे इनकी समाज में हैसियत ब्राम्हणों के बराबर ही है| इसीलिये ये विश्वब्राम्हण भी कहलाते हैं| श्रम सम्मलेन में सभी किसानों, मजदूरों को विश्वकर्मा कहकर प्रधानमंत्री मेहनतकश समुदाय का मान नहीं बढ़ा रहे थे बल्कि उनकी सरकार और संघ का भारत को उच्च कुलीन ब्राम्हणों का राष्ट्र बनाने का छिपा हुआ कार्यभार(एजेंडा) ही आगे बढ़ा रहे थे| इतना ही नहीं, उनका उद्देश्य इस तरह के विरोधाभास को उभार कर मेहनतकशों के अन्दर व्याप्त एकता को तोड़ना भी था| यह वैसा ही प्रयास है, जैसा 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में, जब अपने उपर हो रहे अत्याचार शोषण के खिलाफ संघर्ष करने के लिए एकताबद्ध हो रहे मेहनतकशों की एकता को तोड़ने के लिए उस समय के अंग्रेज, देशी पूंजीपति और धार्मिक पंडित, मुल्ले कर रहे थे| प्रसिद्द ट्रेड युनियन नेता ऐ.बी. वर्धन ने अपनी पुस्तक ‘ट्रेड युनियन शिक्षा’ में कम्युनिस्ट नेता ऐस.ऐ.डांगे को उद्धृत करते हुए उस समय की स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है;
“1852 से 1880 के बीच, इन कारखानों में (अंग्रेजों और उनके भारतीय बिचौलियों द्वारा स्थापित) मजदूर वर्ग का अमानवीय ढंग से निर्दयतापूर्वक शोषण किया गया| धृष्ट अंग्रेज, पवित्र हिंदु, धार्मिक मुसलमान और अपने धर्म, राष्ट्रीयता, भाषा या देश से निरपेक्ष बहुत से लोग पूंजी के इन बूचड़खानों में आदमियों, औरतों और बच्चों का खून बहाने के लिए एकजुट हो गए| विदेशी साम्राज्यवाद द्वारा विजित और जमींदारों और भाड़े के देशद्रोहियों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट देश में नयी व्यवस्था, नयी मशीनों, अब तक कभी न सुने गए कार्य रूपों और नए मालिकों द्वारा प्रताड़ित एवं भारतीय जमीन पर अपने जन्म से ही पूंजी की बर्बरताओं से इन लाखों लोगों को बचाने के लिए न तो कोई क़ानून था, न ही कोई नैतिक आधार....|” प्रधानमंत्री सोचे समझे षड्यंत्र के तहत एक तरफ तो पूरे किसान और मजदूर समुदाय को विश्वकर्मा बनाकर उनमें एक आभासी उच्चता भरना चाहते हैं तो दूसरी तरफ उनसे सभी कानूनी अधिकार छीन रहे हैं, जो उन्होंने पिछले 16-17 दशकों में संघर्षों और कुर्बानियों से प्राप्त किये हैं|

प्रधानमंत्री का विश्व भ्रमण करके दुनिया के एक-एक देश में जाकर “ Come & make in Indiaका नारा देना भारत के मेहनतकशों के लिए बहुत ही भारी पड़ने वाला है| विशेषकर, जब प्रधानमंत्री शीतकालीन सत्र में दो ऐसे श्रम क़ानून(सुधार) स्माल फेक्ट्रीज( रेगुलेशन ऑफ़ एम्पलायमेंट एंड अदर कंडीशंस ऑफ़ सर्विस) एक्ट, 2014 तथा नेशनल वर्कर्स वोकेशनल इंस्टिट्यूट एक्ट,2015 मंजूर करवा चुके हैं जो नियोक्ताओं को प्रशिक्षु कर्मचारियों को नौकरी पर रखने की अनिवार्यता से मुक्त करते हैं| प्रशिक्षु विधान 1961 तथा श्रम क़ानून (संस्थानों के द्वारा विवरण देने और आवश्यक रजिस्टर्स के रखरखाव से छूट) 1988 में संशोधन के जरिये लघु तथा माध्यम दर्जे की सभी इकाईयों को अनेक जरुरी श्रम कानूनों के पालन करने से छूट दे दी गयी है| स्माल फेक्ट्रीज (रोजगार एवं अन्य सेवा शर्तों का नियमन) क़ानून 40 से कम मजदूरों वाली निर्माण इकाईयों को मजदूरों के हितकारी 14 कानूनों के पालन से मुक्त करता है| इसका नतीजा यह है कि 70% से अधिक मजदूर कर्मचारी राज्य बीमा योजना और कर्मचारी भविष्य निधि योजना सहित 14 ऐसे कानूनों से बाहर हो गए हैं, जो अभी तक नियोक्ताओं को मजदूरों के हितों की देखभाल करने और उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए बाध्य करते थे|

सच्चाई यह है कि भारत और विदेश के उद्योगकार जिन बातों को कांग्रेस शासन से नहीं मनवा सके, उन्हें वह अब मोदी सरकार से इसलिए हक़ पूर्वक करवा रहे हैं क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री  को यहाँ तक पहुँचाने और भाजपा को सत्ता में लाने में धन और प्रचार दोनों से मदद की है| उन्हें अब इस सरकार से सस्ता और समर्पणकारी श्रमिक चाहिए| उन्हें सस्ती और बिना प्रतिरोध के जमीनें चाहिए| उन्हें पर्यावरण के सभी कानूनों से मुक्ति चाहिए| उन्हें टेक्सों से मुक्ति चाहिए| और उनके अहसानों के बोझ तले दबी मोदी सरकार इस प्रक्रिया में देश के मेहनतकश को 19वीं शताब्दी के बर्बर दिनों में पहुंचाने पर आमादा है| 

अरुण कान्त शुक्ला                                                                  23/7/2015