Monday, June 15, 2015

सिर्फ ग्रेकस बदला है नीति नहीं..



सिर्फ ग्रेकस बदला है नीति नहीं..

2014 के 16वीं लोकसभा के गठन के लिए हुए आम चुनाव से इस मामले में भिन्न हैं की भारत में पहली बार किसी राजनीतिक दल ने उजागर और घोषित रूप से पूंजीपतियों के लिए, पूंजीपतियों की मदद से चुनाव लड़ा और नरेंद्र मोदी की अगुवाई में उस भ्रमजाल को फैलाने में कामयाब हुआ, जो हमें हावर्ड फ़ास्ट की महाकथा ‘स्पार्टकस’ के ग्रेकस की याद दिलाता है|





दूसरी बात, यदि हम अमेरिका या ब्रिटेन से हमारे देश की राजनीतिक स्थिति का मिलान (तुलना) करें तो एक अद्भुत साम्य से हमारा सामना होता है| आधुनिक अमरीकन राजनीतिक ताने-बाने में दो राजनीतिक दलों के मध्य ही सत्ता की अदली बदली होती रहती है| एक तरफ रिपब्लिकन पार्टी है, जिसे अमेरिकन कंजर्वेटिव पार्टी भी कह सकते हैं, जो राजनीति में शास्त्रीय स्वतंत्रता का अनुशरण करती है| याने निजी संपत्ति की विचारधारा का समर्थन, बिना रोक-टोक की बाजार अर्थव्यवस्था की पक्षधरता, क़ानून का शासन, न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप, धर्म-पालन,  प्रेस की आजादी और मुक्त व्यापार आधारित विश्व शान्ति| दूसरी तरफ डेमोक्रेटिक पार्टी है, जो राजनीति और अर्थशास्त्र में आधुनिक स्वतंत्रता की पक्षधर है| याने मिश्रित अर्थव्यवस्था के तहत एक लोक-कल्याणकारी राज्य और प्रगति का सामाजिक रूप या ढंग| शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं की सुरक्षा, रोजगार के अधिकार इसी के तहत आते हैं|

कमोबेश, यही हमें ब्रिटेन में कंजर्वेटिव और लेबर पार्टी के रूप में दिखाई पड़ता है| लेबर पार्टी, जो संगठित ट्रेड युनियनों, श्रम-आन्दोलनों और राजनीति में समाजवादी विचारधारा के साथ साम्य बिठाने की बात करती है और कंजर्वेटिव पार्टी, जिसका झुकाव और रुझान राजनीति में वर्तमान स्थिति को यथावत रखने या रुढ़िवादी व्यवस्था को बढ़ाने और बनाए रखने की तरफ होता है| कंजर्वेटिव राजनीतिक दर्शन परंपरागत संस्थाओं और रूढ़िवादिताओं को सम्मानित करने के लिए जोर देता है| कंजरवेटिव सभी तरह के सामाजिक सुधार या समाज के उन्नयन के लिए सार्वजनिक धन के उपयोग या विधी जन्य उपायों के खिलाफ होते हैं| राजनीतिक पंडित यूके में लेबर पार्टी को और अमेरिका में डेमोक्रेटस को वाम राजनीति के ज्यादा नजदीक मानते हैं| विशेष बात यह है की दोनों देशों की दोनों पार्टियां पूँजीपरस्त राजनीति की ही अनुगामी हैं| उनकी राजनीतिक और सामाजिक नीतियों में अंतर शास्त्रीय स्वतंत्रता और आधुनिक स्वतंत्रता के मध्य का ही अंतर है|

बिना इन राजनीतिक पार्टियों के इतिहास में जाए, इसमें एक रोचक तथ्य और जोड़ा जा सकता है| आज पूरी दुनिया में जिन भूमंडलीकरण, निजीकरण और मुक्त व्यापार की नवउदारवादी नीतियों के नाम पर हाहाकार मचा हुआ है, 1981 में उनकी दुनिया में शुरुवात करने वाले अमेरिकी प्रेसिडेंट रीगन (81-89) और यूनाईटेड किंगडम (ब्रिटेन) की प्रधानमंत्री मार्गेट थेचर (1979-1990) क्रमश: रिपब्लिकन और कंजर्वेटिव पार्टी के ही थे| यह वही दोनों थे जिन्होंने पूरी विश्व की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को, विशेषकर विकासशील और अविकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं को विश्व बैंक, आईएमएफ और गाट (आज का विश्व व्यापार संगठन) की मदद से बदलकर रख दिया| उनके राजनीतिक दर्शन और आर्थिक नीतियों का ही प्रभाव था कि पूरे विश्व में विनियंत्रित वित्तीय क्षेत्र, श्रम कानूनों से मुक्त श्रम बाजार, राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों के निजीकरण और ट्रेड यूनियनों के प्रभाव को निष्क्रिय करने का दौर 1981 में शुरू हुआ और आज तक चला आ रहा है| यही कारण है कि उदारवाद-भूमंडलीकरण-निजीकरण की इन नीतियों को रीगनवाद और थेचरवाद के नाम से भी जाना जाता है| अब इसमें दूसरा रोचक तथ्य यह जोड़ा जा सकता है कि एक बार (प्रचलित नाम) एलपीजी की नीतियों के लागू हो जाने के बाद चाहे वह अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में आई हो या ब्रिटेन में लेबर पार्टी, सभी को उन्हीं थेचरी और रीगनी नीतियों पर ही चलना पड़ा| यदि कोई अंतर आया तो वह समाज के गरीब तबकों और असंगठित मजदूरों के लिए चलाई गईं कुछ कल्याणकारी योजनाओं और शिक्षा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में किये गए श्रंगारिक कार्यों तक ही सीमित रहा, जिसका कोई भी ठोस प्रतिफलन उन तबकों के जीवनस्तर में भी सुधार के रूप में दिखाई नहीं पड़ा|

अब यदि उपरोक्त परिदृश्य में भारत में 2014 में हुए राजनीतिक परिवर्तन आकें तो हमें देश की आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में किसी भी मूलगामी परिवर्तन का संकेत नहीं मिलता है| सिवाय इसके कि लगभग ढाई दशक पहले नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहनसिंह ने एलपीजी के जिस रास्ते पर देश को डाला था, उस रास्ते पर मोदी सरकार और भी तेजी और कट्टरता के साथ बढ़ रही है| रीगन और थेचर के देश से साम्यता खोजें तो भारत में भाजपा रिपब्लिकन और कंजर्वेटिव है, अपने साम्प्रदायिक एजेंडे के साथ|

2014 के लोकसभा के चुनावों के दौरान हमारे सामने दो अहं सच्चाईयां थीं| पहली, यूपीए सरकार के द्वारा जनता के अपेक्षाकृत कमजोर हिस्से के लिए लाई गईं मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार, जैसी तमाम योजनाओं के बावजूद उजागर हुए कोयला, कामनवेल्थ, 2जी और अन्य घोटालों ने साधारण से साधारण देशवासी को भी मानसिक रूप से त्रस्त कर दिया था और उन्हें किसी भी कीमत पर कांग्रेसनीत सरकार से छुटकारा पाना ही एकमात्र उपाय लगा था| यह फिलवक्त सच है कि इस एक वर्ष के दौरान केंद्र के स्तर पर कोई भी बड़ा स्केम सामने नहीं आया है| पर, यह तो यूपीए के साथ भी था| याद कीजिये यूपीए-1 के पहले या दूसरे वर्ष में कोई बड़ा स्केम नहीं था, मगर अन्दर ही अन्दर घोटालों की तैय्यारियाँ चालू थीं| फिर यदि क़ानून के द्वारा ही अवैधानिक कार्यों को वैध बना दिया जाए तो स्केमों की संख्या तो वैसे ही कम हो जाती है| यदि हम इस एक वर्ष के दौरान भाजपानीत एनडीए (मोदी) सरकार के द्वारा जारी किये गए अध्यादेशों या लोकसभा में पास हुए कानूनों का गहराई से अध्यन करें तो पायेंगे कि करीब- करीब सभी या तो अवैधानिकता का नियमतिकरण (वैधानिक जामा पहनाना) करते हैं या देश के प्राकृतिक संसाधनों और देश की श्रम शक्ति तथा लोगों की खून-पसीने की कमाई से की गईं बचतों की लूट में आ रही बाधाओं दूर करने के लिए लाए/बनाए गए हैं| इंश्योरेंस बिल(2015), कोयला खदान(विशेष प्रावधान) 2015, खदान और खनिज (विकास एवं नियंत्रण) संशोधन बिल 2015, भू अधिग्रहण उचित मुआवजा/ पारदर्शिता, पुनर्व्यवस्थापन एवं स्थानान्तारण (संशोधन) बिल 2015, लघु कारखाना(रोजगार एवं अन्य दशाएं नियंत्रण) क़ानून 2014, राष्ट्रीय कामगार वोकेशनल संस्थान क़ानून 2015, और श्रम संबंधित अन्य कानूनों का भी उद्देश्य देश के संसाधनों को लुटाना, श्रम कानूनों से कारखानेदारों को मुक्ति दिलाकर श्रम के शोषण के रास्ते की बाधाओं को हटाना ही है| इन सभी कानूनों के पूर्व के रहते हुए कार्पोरेट्स-राजनेता-अफसरशाही के पास घोटाले करने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं था| अब सभी अवैधानिकता को वैधानिकता का जामा पहनाया जा रहा है|        

दूसरी कि, भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री के लिए नामांकित नरेंद्र मोदी ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस शासन की खामियों और बुराईयों को उजागर करने के अलावा अपनी या अपनी पार्टी की तरफ से कोई भी ठोस वायदा देश के लोगों के साथ नहीं किया| भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और मोदी दोनों स्वीकार कर चुके हैं कि ‘अच्छे दिन आयेंगे’ या ‘100 दिनों में काला धन वापस आ जाएगा’ राजनीतिक जुमलेबाजी थी| इतना ही नहीं, चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी सेना के सेवानिवृत अधिकारियों और जवानों के बीच गए थे और वायदा करके आये थे कि शासन में आते ही ‘वन रेंक वन पेंशन’ लागू कर देंगे| अब वह मन की बात में कह रहे हैं कि उन्होंने इस कार्य को जितना सरल समझा था यह उतना सरल नहीं है| स्वतन्त्र भारत में अभी तक हुए सभी आम चुनाव, 2014 के 16वीं लोकसभा के गठन के लिए हुए आम चुनाव से इस मामले में भिन्न हैं की भारत में पहली बार किसी राजनीतिक दल ने उजागर और घोषित रूप से पूंजीपतियों के लिए, पूंजीपतियों की मदद से चुनाव लड़ा और नरेंद्र मोदी की अगुवाई में उस भ्रमजाल को फैलाने में कामयाब हुआ, जो हमें हावर्ड फ़ास्ट की महाकथा ‘स्पार्टकस’ के ग्रेकस की याद दिलाता है|

स्पार्टकस में ग्रेकस राजनीतिज्ञ है, जो रोम की सीनेट का सदस्य है| स्पार्टकस में ईसा से 73 वर्ष पूर्व के रोम की कथा है जब गुलामी की प्रथा अपने चरम पर थी और उन्ही गुलामों में से एक स्पार्टकस ने उस पाशविक प्रथा को चुनौती देने का विवेक और साहस अपने आप में पाया था| मैं नीचे एक उद्धरण देने के बाद  गणतंत्र, पूंजीपति, राजनीतिज्ञ, आम लोगों के बारे में ग्रेकस के विचार क्या थे, उन्हें जैसा का तैसा दे रहा हूँ| आपको ऐसा प्रतीत होगा मानो ग्रेकस इस देश के बारे में ही बोल रहा है...     

घर और परिवार और इज्जत और शराफत और नेकी और जो कुछ भी अच्छा था और पवित्र था उसके मालिक गुलाम थे और वही उसकी रक्षा कर रहे थे – इसलिए नहीं कि वे अच्छे और पवित्र थे बल्कि इसलिए कि जो कुछ भी पवित्र था सब उसके मालिकों ने उन्ही गुलामों के हवाले कर दिया था|                                                                    (ग्रेकस का कथन गुलामों के बारे में)

ग्रेकस के उपरोक्त विश्लेषण का अर्थ कदापि यह नहीं लगाया जा सकता कि कि उसे विद्रोही गुलामों से कोई सुहानुभूति थी या फिर वह उस व्यवस्था को बदलना चाहता था| स्वयं ग्रेकस के अनुसार राजनीतिज्ञ चालबाज होता है और राजनीतिज्ञ के अंदर इस चीज (चालबाजी) को देखकर लोग अकसर इसको ईमानदारी समझने की भूल किया करते हैं| ग्रेकस की गणतंत्र के बारे में राय देखिये;

देखो हम लोग एक गणतंत्र में रहते हैं | इसका मतलब है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है और मुठ्ठी भर लोग ऐसे हैं जिनके पास बहुत कुछ है| और जिनके पास बहुत कुछ है उनकी रक्षा, उनका बचाव उन्हीं को करना है जिनके पास कुछ भी नहीं |”

ग्रेकस के अनुसार इस तरह के गणतंत्र को बनाए रखने के लिये सीमेंट का काम राजनीतिज्ञ ही करते हैं| उच्चवंश (सम्पतिवान) इस काम को नहीं कर सकते क्योंकि उनकी निगाह में जनता भेड़ बकरी के सामान होती है| उच्चवंशीय को साधारण नागरिक के बारे में कुछ नहीं मालूम| अगर यह सब उसके भरोसे छोड़ दिया जाए तो समूचा ढांचा एक दिन में भहरा पड़े| इसे बचाने का काम राजनीतिज्ञ करते हैं| कैसे करते हैं, ग्रेकस से सुनिए;

............ जो चीज नितांत असंगत है हम उसके अंदर संगती पैदा करते हैं| हम लोगों को यह समझा देते हैं कि जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता अमीरों के लिये मरने में है| हम अमीरों को यह समझा देते हैं कि उन्हें अपनी दौलत का कुछ हिस्सा छोड़ देना चाहिए ताकि बाकी को वे अपने पास रख सकें| हम जादूगर हैं| हम भ्रम की चादर फैला देते हैं और वह ऐसा भ्रम होता है जिससे कोई बच नहीं सकता| हम लोगों से कहते हैं–तुम्हीं शक्ति हो| तुम्हारा वोट ही रोम की शक्ति और कीर्ति का स्त्रोत है| सारे संसार में केवल तुम्हीं स्वतन्त्र हो| तुम्हारी स्वतंत्रता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है, तुम्हारी सभ्यता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है, तुम्हारी सभ्यता से अधिक प्रशंसनीय कुछ भी नहीं है| और तुम्ही उसको नियंत्रित करते हो; तुम्हीं शक्ति हो, तुम्ही सत्ता हो| और तब वे हमारे उम्मीदवार के लिये वोट दे देते हैं| वे हमारी हार पर आँसू बहाते हैं, हमारी जीत पर खुशी से हँसते हैं| ................चाहे उनकी हालत कितनी भी गिरी क्यों न हो, चाहे वे नालियों में ही क्यों न सोते हों, .............. चाहे वे अपने बच्चों के पैदा होते ही उनका गला क्यों न घोंट देते हों, चाहे उनकी बसर खैरात पर ही क्यों न होती हो और चाहे पैदाईश से लेकर मरने तक उन्होंने एक रोज काम करने के लिये हाथ न उठाया हो, .......... यह मेरी कला है| राजनीति को कभी तुच्छ नहीं समझना|

यही आवाज तो आज हम सुन रहे हैं !

अरुण कान्त शुक्ला,                                                            जून15, 2015 
         



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